Sunday, September 25, 2011

हंगामा है क्यों बरपा

प्रिय मित्रो,

पिछले   कई   सप्ताहों से  देश और दुनिया में हंगामा मचा हुआ है .पहले एक भारतीय  ने जो  स्टैण्डर्ड और पुअर नामक अमरीकी संस्था के प्रमुख हुआ करते थे ,ने अमरीका में रहते और  अमरीकी कम्पनी में काम करते हुए उसकी रेटिंग कम कर के  कालीदास       की तरह उस डाली को ही निशाना बना दिया जिस पर वोह खुद  भी बैठे हुए थे और महाकवी कालीदास  की तरह ही अपना नाम इतिहास में दर्ज करा दिया .फिर बाबा रामदेव ने काले लोगो के धन (धन काला या सफ़ेद नहीं होता) को निशाना बनाया तो कई हफ्ते इस चर्चा में निकल गए . पिछले महीने अन्ना हजारे जी के आन्दोलन और अनशन  ने  भारत में  ही नहीं  दुनिया भर  में  हंगामा मचाया और लोगो को फिर गुजरात  में पैदा हुए  गाँधी की  याद दिला दी .

इस क्रम में सबसे ताजा हंगामा मचाया है गुजरात के मुख्यमंत्री  नरेन्द्र मोदी के उपवास ने .कुछ कहते की यह उपवास प्रधानमंत्री बन ने के लिए मोदी का नाटक है और कुछ की निगाह में यह २०१२ के चुनाव में दुबारा सत्ता हासिल करने का हथकंडा .देश  के नेताओ  द्वारा तरह -तरह से देश का तमाम  धन खाने से भी  शायद इतना हंगामा नहीं मचा होगा जितना मोदी के उपवास से. कोई कहता है की इससे कलंक नहीं धुलेगा और कोई कहता है की नौ सो चूहे खा कर बिल्ली हज को जा रही है. कोई इन बुद्धजीविओं     से पूछे की भाई बिल्ली चूहे खा कर भी अगर हज को चली जाये तो क्या बुराई है , इनके हिसाब से  तो बिल्ली को जिन्दगी भर चूहे ही खाते रहना चाहिए और गलती समझ आ जाये तो भी करते रहना चाहिए  क्योंकि इन नेताओ में इतना साहस नहीं है की जो दिखता महसूस होता है उसको भी स्वीकार कर सके  . नहीं तो पीपल्स डेमोक्रेटिक पार्टी की महबूबा मोदी  गुजरात में हुए विकास की  तारीफ  कर फिर मुकर न जाती और अब्दुल्ला को ट्विट करके उन्हें याद न दिलाना पड़ता.वैसे  इस तरह की बाते करने वालो में वही लोग आगे है जिनका पेट साठ साल देश को लूट के अपना और अपने रिश्तेदारों के  घर भरने  के बाद  भी नहीं भरा है और वह खाली  का  खाली है बिलकुल लैटर बॉक्स की तरह जो  सुबह से शाम तक भरने के बाद भी  अगले दिन फिर खाली का खाली ही रहता है. 

ये तो अच्छा हुआ ये कांग्रेसी नेता भगवान राम के ज़माने में नहीं हुए,  नहीं तो महर्षि   बाल्मीकि जो अपने आरम्भिक दिनों में लूटपाट किया करते थे और ज्ञान मिलने के बाद  राम-राम जप करके अपने समय के सबसे बड़े ऋषि भी कहलाये और राम कथा लिखने के साथ ही राम के दोनों पुत्रो और सीता माता  का भरण पोषण भी  किया और लव कुश को युद्ध में इतना कुशल बनाया की वोह दोनों बच्चे भगवान राम के अश्वमेधयुद्ध के घोड़े को पकड़ कर राम जो पुरषोत्तम भी थे और भगवान भी की  सत्ता को  चेलेंज कर सके और सीता माता के साथ हुए अन्याय   का एहसास भी  करवा दिया . ऐसे अनेक उदहारण इतिहास में मिल जायंगे जहाँ नौ सो चूहे खा कर बिल्ली हज को भी गयी  और लोगो के लिए आदर्श भी रखा आखिर ये उनसे तो अच्छे ही  है जो नौसो क्या नौ हजार खाने के बाद भी हज नहीं जाना  चाहते है.


इस क्रम में एक और बात जिसने हंगामा मचाया है वोह है लाल कृष्ण अडवाणी की यात्रा .वैसे तो कृष्ण का एक नाम ही पार्थ सारथी है. पार्थ यानि अर्जुन के सारथी अर्थात  रथ को चलाने वाले .इस नाते से तो लाल कृष्ण अडवाणी जी का रथ यात्रा एक विशेषा अधिकार है (यथा नाम तथा गुण ) , और जब उन्होंने पार्थ सारथी की तरह अर्जुन रूपी  धर्म का रथ चलाया तो मोक्ष यानि सत्ता भी प्राप्त की और खूब आन्नद भी उठाया लेकिन यह बात तब की है जब एक तरफ कौरव थे और दूसरी तरफ पांडव .परन्तु  अब समस्या यह है की इस देश के पांडव (अर्थात धर्म मार्ग पर चलने वाले )  तो अज्ञात वास में  है इसलिए लड़ाई अब कौरव और पांडवो के बीच न होकर केवल  कौरवो के बीच है यानि दोनों ही तरफ कौरव है तो अब भगवान ही बता सकते है अबकी लाल कृष्ण किसका रथ हाकेंगे दुर्योधन का या फिर दुशाशन का. और अबकी बार युद्ध में विजय के बावजूद मोक्ष यानि प्रधान मंत्री की कुर्सी नहीं मिलेगी यह भी पहले ही  तय हो गया है तो रथ यात्रा और रथ यात्री का क्या होगा भगवान जाने.


 यानि और कुछ हो न हो हंगामा तो बरपे गा ही और कुछ दिन  और निकल जायेंगे भूखे पेट लोगो के इस हंगामे के बीच, जिनकी आमदनी 32 रुपये रोज से ज्यादा है और पेट भर के खाना भी नहीं खा  पाते है  और सरकारी सुविधाएँ  भी नहीं क्योंकि सरकार ने देश की सबसे बड़ी अदालत में हलफनामा दाखिल कर दिया है की इतने रुपये कमाने वाले को इसमें जितना मिलता है उतना ही खाना चाहिए तो  सरकार की जिम्मेदारी खतम हो गयी  ,गरीबी  रेखा से नीचे लोगो की  जीवन की मूल आवश्यकताओं  की पूर्ति में सर खपाने की जिसका अधिकार उन्हें भारत के संविधान से मिला है . इसलिए अब सरकार के मुखिया और अधिकारी आराम से अपनी गरीबी दूर करने में अपना दिमाग और  श्रम लगा सकते है .
  और अंत में 
तब्दीलिया बस इतनी हुई,इन्क़लाब से 
कुछ नाम हट गए पुरानी किताब से .

अजय सिंह "एकल"









Sunday, September 18, 2011

जाके पैर न फटी बिवाई

प्रिय दोस्तों ,

ठीक समझा आपने ,इस देश ७० प्रतिशत लोग गरीब है और देश की संसद में ७० प्रतिशत करोड़पति है यानि संसद में ७० प्रतिशत जनता को ३० प्रतिशत संसद रिप्रेजेंट करते है और ३० प्रतिशत जनता को ७० प्रतिशत .और संसद में तो खेल नम्बरों का है यानि जिसके पाले में ज्यादा लोग वह ही जीतेगा और निर्णय उसके पक्ष में ही होंगे .मतलब  यह  की  जिनके हाथो में जिम्मेदारी है गरीबों  के  लिए पालसी बनाने की और उसको  लागू करवाने  की उन्हें न तो यह पता है की गरीबी क्या होती है और न यह की  वह  अपना जीवन चलाने के लिए कितना संघर्ष करता है  . तभी तो प्लानिंग कमीशन  के उप प्रधान श्री मोंटेक सिंह जो वर्ल्ड बैंक के पेंसनर भी है ,फरमाते है की २० रुपये रोज कमाने वाला आदमी गरीबी रेखा के ऊपर है यानि सरकार की कसौटियो  पर गरीब नहीं माना जाना चाहिए. ठीक ही तो है जिन लोगो की कमाई डालर में होती है और जीवन की सारी जरूरते   सरकारी सुविधाओ से मुफ्त में प्राप्त हो,एयर कंडीशन  दफ्तर से निकल कर एयर कंडीशन घर शानदार   एवं  आरामदेय लाल बत्ती लगी काली शीशे वाली विदेशी कार से  घर जाते है उन्हें  सड़क पर पैदल चलती और न पब्लिक वाहनों  में  धक्के खाती जनता  नजर आती है और न सब्जी या पेट्रोल के दाम बढ़ने का असर .ठीक ही तो कहा है की "जाके पैर न फटी बेवाई सो क्या जाने पीर पराई"

 कितनी विचित्र बात है  और  सबको पता है की  अमीर आदमी अपनी ताकत या तो धन बढाने में लगता है या फिर उसको बचाने   में. हाँ यदि इस उद्देश्य की पूर्ति में कुछ धन और समय खर्च हो जाये तो उतना वह इन्वेस्टमेंट  कर देता है लेकिन यह सूद समेत कैसे वापस आएगा इसकी व्यवस्था भी साथ -साथ करता जाता है. तो जब इनके हाथ खजाना लग गया तो फिर दूसरे लोगो को  लाभ क्यों लेने देंगे ,इसीलिए अन्ना हजारे को  अपने भ्रष्टाचार के खिलाफ  आन्दोलन  में मंच से यह घोषणा करनी पड़ी की जो आज मंत्री और सांसद बन बैठे है लुटेरे भी इन्ही में से है.अब यह बात जिनके लिए कही गयी  उन्हें बुरा तो लगना ही था .क्योकिं अब तक सार्वजनिक मंच पर यह चर्चा नहीं हुई थी इसलिए कहने वालो को नोटिस भी दी जा रही है और उत्पीड़न भी किया जा रहा है नहीं तो जनता इसको नेताओ की मौन स्वीकृत मान लेगी.

अब यह तो मानना तर्क संगत ही होगा की यदि माननीय सांसद करोड़ो रुपये  खर्च कर के संसद में पहुचेंगे तो उसको सूद सहित वापस प्राप्त करने में कोई कसर नहीं छोड़ेंगे.इसलिए चुनाव सुधार को अन्ना ने जन लोकपाल के बाद प्राथमिकता दी है.इस सम्बन्ध में कुछ सुझावों नीचे दे रहा ,इनमे  जो उचित लगे उनपर विस्तृत चर्चा की जा सकती है:



  1. ५०-७० प्रतिशत सीटे उनलोगों के आरक्षित हो जिनकी सालाना आमदनी २-३ लाख से ज्यादा न हो,ताकि यह अपने और अपनों को लाभ देने वाली योजनाये बनाये और उसका प्रभाव भी जल्द से जल्द पता लग सके.
  2. जो लोग एक से ज्यादा सीटों पर चुनाव लड़ना चाहते हो उन्हें अतरिक्त  सीट पर होने वाले  खर्च को चुनाव आयोग के पास जमा करवा देने का विधान बने. पिछले चुनाव में लोकसभा की ५४२ सीटों पर करीब १० हजार करोड़ खर्च हुए थे इस हिसाब से प्रति सीट खर्च २० करोड़ के औसत से जमा करने से दुबारा होने वाले चुनाव का खर्चा सरकार को  नहीं उठाना पड़ेगा. और किसी की  व्यक्तिगत महत्वाकांक्षा का बोझ देश के कर देने वाले लोगो की जेब पर नहीं पड़ेगा .
  3. राजनैतिक पार्टियों को मिलने वाले चंदे को कर मुक्त करने के बजाये इसे  पार्टी की कर योग्य  आए माना जाये और उस पर टैक्स लगना चाहिए . आखिर अब राजनीत करने वाले लोग पेशेवर है और पार्टिया कंपनी की तरह तनख्वा भी देती है और अतिरिक्त सुविधाए भी, इसलिए इन्हें कर मुक्त करना न तो तर्क संगत है न न्याय संगत.
  4. जो कॉर्पोरेट घराने पार्टियों को चंदा देते है वह  वास्तव में कंपनी के खातो से होता है,जिसकी मालिक शेयर होल्डर जनता है न की कुछ शेयर ज्यादा होने की वजह से बने हुए मालिक ,इसलिए इन्हें अपनी मर्जी से उन उद्देश्यों के लिए पैसे खर्च करने का अधिकार नहीं है जो कंपनी के मूल उद्देश्यों  से मेल नहीं खाते है.इतना ही नहीं इनकी पहली जिम्मेदारी  नियमानुसार कानून के मुताबिक टैक्स भरने की है न की राजनैतिक पार्टियो को चंदा देकर उस से  किसी तरह बचने की.  इसलिए जिन कंपनियो ने सरकार के करोड़ो रुपये  आय कर, एक्साइज ड्यूटी ,कस्टम ड्यूटी इत्यादि न चुकाए हो उन्हें चन्दा देने के पहले टैक्स चुकाना चाहिए तथा  चंदा देने वाली कंपनियों को अनापत्ति प्रमाण पत्र चंदे के साथ देना चाहिए अन्यथा इनके द्वारा दिया जाने वाला पैसा टैक्स बचाने की नियत का हिस्सा बन जाता है और इस खर्चे को आय कर विभाग ख़ारिज कर ,कर योग्य आय मन सकता है,इस खर्चे  की स्वीकृत शेयर धारको  से भी ली जानी चाहिए.
  5. राजनैतिक पार्टियों का आय -व्यय खाता भी आम जनता के लिए इनकी वेब साईट पर  हो और इससे सम्बंधित प्रश्न सूचना  के अधिकार नियम के तहत दिए जाये.
  6. सार्वजनिक जीवन में काम करने  वाले सभी  व्यक्तियों की  सालाना आए व्यय जानकारी भी सार्वजनिक हो और इस से सम्बंधित जानकारी भी सूचना के अधिकार के तहत दी जानी चाहिए. सूचना गलत दिए जाने पर कड़े दंड का प्राविधान हो. उदहारण के लिए जिन मंत्रियो की संपत्ति में २०० से १००० प्रतिशत की वृधि दो सालो में हुई है वह यह बताये की इस आए का श्रोत क्या है और क्या इस पर नियम अनुसार टैक्स दिया गया है.इसमें कुछ भी अवैधानिक नहीं है आम आदमी को ऐसा करना पड़ता है तो सांसदों और मंत्रियो को इस से छूट देने का कोई कारण नजर नहीं आता है.
  7. राइट  टू रीकाल लागु हो और इसको प्रभावी एवं इकोनोमिकल बनाने के लिए मतदान में एक के बजाये दो उम्मीदवारों को  वरीयता के क्रम से विजयी घोषित किया जाये ,यानि किसी क्षेत्र के सांसद या विधायक को यदि उस इलाके की जनता वापस बुला ले तो दूसरी वरीयता प्राप्त विजेता को पहले के स्थान पर नियुक्ति मिले ,ताकि तुरंत दुबारा चुनाव करवाने के खर्च एवं प्रशासनिक कार्यो की जरुरत न पड़े.


और अंतिम बात:

ये तो तय था की मंजर बदल जायेंगे 
हालत जो बे काबू थे सुधर जायेंगे 
इक तुम जो खालो कसम इन्कलाब की 
वतन में हर तरफ बस अन्ना नजर आएंगे l 

अजय सिंह "एकल"
  












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