प्रिय दोस्तों ,
ठीक समझा आपने ,इस देश ७० प्रतिशत लोग गरीब है और देश की संसद में ७० प्रतिशत करोड़पति है यानि संसद में ७० प्रतिशत जनता को ३० प्रतिशत संसद रिप्रेजेंट करते है और ३० प्रतिशत जनता को ७० प्रतिशत .और संसद में तो खेल नम्बरों का है यानि जिसके पाले में ज्यादा लोग वह ही जीतेगा और निर्णय उसके पक्ष में ही होंगे .मतलब यह की जिनके हाथो में जिम्मेदारी है गरीबों के लिए पालसी बनाने की और उसको लागू करवाने की उन्हें न तो यह पता है की गरीबी क्या होती है और न यह की वह अपना जीवन चलाने के लिए कितना संघर्ष करता है . तभी तो प्लानिंग कमीशन के उप प्रधान श्री मोंटेक सिंह जो वर्ल्ड बैंक के पेंसनर भी है ,फरमाते है की २० रुपये रोज कमाने वाला आदमी गरीबी रेखा के ऊपर है यानि सरकार की कसौटियो पर गरीब नहीं माना जाना चाहिए. ठीक ही तो है जिन लोगो की कमाई डालर में होती है और जीवन की सारी जरूरते सरकारी सुविधाओ से मुफ्त में प्राप्त हो,एयर कंडीशन दफ्तर से निकल कर एयर कंडीशन घर शानदार एवं आरामदेय लाल बत्ती लगी काली शीशे वाली विदेशी कार से घर जाते है उन्हें सड़क पर पैदल चलती और न पब्लिक वाहनों में धक्के खाती जनता नजर आती है और न सब्जी या पेट्रोल के दाम बढ़ने का असर .ठीक ही तो कहा है की "जाके पैर न फटी बेवाई सो क्या जाने पीर पराई"
कितनी विचित्र बात है और सबको पता है की अमीर आदमी अपनी ताकत या तो धन बढाने में लगता है या फिर उसको बचाने में. हाँ यदि इस उद्देश्य की पूर्ति में कुछ धन और समय खर्च हो जाये तो उतना वह इन्वेस्टमेंट कर देता है लेकिन यह सूद समेत कैसे वापस आएगा इसकी व्यवस्था भी साथ -साथ करता जाता है. तो जब इनके हाथ खजाना लग गया तो फिर दूसरे लोगो को लाभ क्यों लेने देंगे ,इसीलिए अन्ना हजारे को अपने भ्रष्टाचार के खिलाफ आन्दोलन में मंच से यह घोषणा करनी पड़ी की जो आज मंत्री और सांसद बन बैठे है लुटेरे भी इन्ही में से है.अब यह बात जिनके लिए कही गयी उन्हें बुरा तो लगना ही था .क्योकिं अब तक सार्वजनिक मंच पर यह चर्चा नहीं हुई थी इसलिए कहने वालो को नोटिस भी दी जा रही है और उत्पीड़न भी किया जा रहा है नहीं तो जनता इसको नेताओ की मौन स्वीकृत मान लेगी.
अब यह तो मानना तर्क संगत ही होगा की यदि माननीय सांसद करोड़ो रुपये खर्च कर के संसद में पहुचेंगे तो उसको सूद सहित वापस प्राप्त करने में कोई कसर नहीं छोड़ेंगे.इसलिए चुनाव सुधार को अन्ना ने जन लोकपाल के बाद प्राथमिकता दी है.इस सम्बन्ध में कुछ सुझावों नीचे दे रहा ,इनमे जो उचित लगे उनपर विस्तृत चर्चा की जा सकती है:
कितनी विचित्र बात है और सबको पता है की अमीर आदमी अपनी ताकत या तो धन बढाने में लगता है या फिर उसको बचाने में. हाँ यदि इस उद्देश्य की पूर्ति में कुछ धन और समय खर्च हो जाये तो उतना वह इन्वेस्टमेंट कर देता है लेकिन यह सूद समेत कैसे वापस आएगा इसकी व्यवस्था भी साथ -साथ करता जाता है. तो जब इनके हाथ खजाना लग गया तो फिर दूसरे लोगो को लाभ क्यों लेने देंगे ,इसीलिए अन्ना हजारे को अपने भ्रष्टाचार के खिलाफ आन्दोलन में मंच से यह घोषणा करनी पड़ी की जो आज मंत्री और सांसद बन बैठे है लुटेरे भी इन्ही में से है.अब यह बात जिनके लिए कही गयी उन्हें बुरा तो लगना ही था .क्योकिं अब तक सार्वजनिक मंच पर यह चर्चा नहीं हुई थी इसलिए कहने वालो को नोटिस भी दी जा रही है और उत्पीड़न भी किया जा रहा है नहीं तो जनता इसको नेताओ की मौन स्वीकृत मान लेगी.
अब यह तो मानना तर्क संगत ही होगा की यदि माननीय सांसद करोड़ो रुपये खर्च कर के संसद में पहुचेंगे तो उसको सूद सहित वापस प्राप्त करने में कोई कसर नहीं छोड़ेंगे.इसलिए चुनाव सुधार को अन्ना ने जन लोकपाल के बाद प्राथमिकता दी है.इस सम्बन्ध में कुछ सुझावों नीचे दे रहा ,इनमे जो उचित लगे उनपर विस्तृत चर्चा की जा सकती है:
- ५०-७० प्रतिशत सीटे उनलोगों के आरक्षित हो जिनकी सालाना आमदनी २-३ लाख से ज्यादा न हो,ताकि यह अपने और अपनों को लाभ देने वाली योजनाये बनाये और उसका प्रभाव भी जल्द से जल्द पता लग सके.
- जो लोग एक से ज्यादा सीटों पर चुनाव लड़ना चाहते हो उन्हें अतरिक्त सीट पर होने वाले खर्च को चुनाव आयोग के पास जमा करवा देने का विधान बने. पिछले चुनाव में लोकसभा की ५४२ सीटों पर करीब १० हजार करोड़ खर्च हुए थे इस हिसाब से प्रति सीट खर्च २० करोड़ के औसत से जमा करने से दुबारा होने वाले चुनाव का खर्चा सरकार को नहीं उठाना पड़ेगा. और किसी की व्यक्तिगत महत्वाकांक्षा का बोझ देश के कर देने वाले लोगो की जेब पर नहीं पड़ेगा .
- राजनैतिक पार्टियों को मिलने वाले चंदे को कर मुक्त करने के बजाये इसे पार्टी की कर योग्य आए माना जाये और उस पर टैक्स लगना चाहिए . आखिर अब राजनीत करने वाले लोग पेशेवर है और पार्टिया कंपनी की तरह तनख्वा भी देती है और अतिरिक्त सुविधाए भी, इसलिए इन्हें कर मुक्त करना न तो तर्क संगत है न न्याय संगत.
- जो कॉर्पोरेट घराने पार्टियों को चंदा देते है वह वास्तव में कंपनी के खातो से होता है,जिसकी मालिक शेयर होल्डर जनता है न की कुछ शेयर ज्यादा होने की वजह से बने हुए मालिक ,इसलिए इन्हें अपनी मर्जी से उन उद्देश्यों के लिए पैसे खर्च करने का अधिकार नहीं है जो कंपनी के मूल उद्देश्यों से मेल नहीं खाते है.इतना ही नहीं इनकी पहली जिम्मेदारी नियमानुसार कानून के मुताबिक टैक्स भरने की है न की राजनैतिक पार्टियो को चंदा देकर उस से किसी तरह बचने की. इसलिए जिन कंपनियो ने सरकार के करोड़ो रुपये आय कर, एक्साइज ड्यूटी ,कस्टम ड्यूटी इत्यादि न चुकाए हो उन्हें चन्दा देने के पहले टैक्स चुकाना चाहिए तथा चंदा देने वाली कंपनियों को अनापत्ति प्रमाण पत्र चंदे के साथ देना चाहिए अन्यथा इनके द्वारा दिया जाने वाला पैसा टैक्स बचाने की नियत का हिस्सा बन जाता है और इस खर्चे को आय कर विभाग ख़ारिज कर ,कर योग्य आय मन सकता है,इस खर्चे की स्वीकृत शेयर धारको से भी ली जानी चाहिए.
- राजनैतिक पार्टियों का आय -व्यय खाता भी आम जनता के लिए इनकी वेब साईट पर हो और इससे सम्बंधित प्रश्न सूचना के अधिकार नियम के तहत दिए जाये.
- सार्वजनिक जीवन में काम करने वाले सभी व्यक्तियों की सालाना आए व्यय जानकारी भी सार्वजनिक हो और इस से सम्बंधित जानकारी भी सूचना के अधिकार के तहत दी जानी चाहिए. सूचना गलत दिए जाने पर कड़े दंड का प्राविधान हो. उदहारण के लिए जिन मंत्रियो की संपत्ति में २०० से १००० प्रतिशत की वृधि दो सालो में हुई है वह यह बताये की इस आए का श्रोत क्या है और क्या इस पर नियम अनुसार टैक्स दिया गया है.इसमें कुछ भी अवैधानिक नहीं है आम आदमी को ऐसा करना पड़ता है तो सांसदों और मंत्रियो को इस से छूट देने का कोई कारण नजर नहीं आता है.
- राइट टू रीकाल लागु हो और इसको प्रभावी एवं इकोनोमिकल बनाने के लिए मतदान में एक के बजाये दो उम्मीदवारों को वरीयता के क्रम से विजयी घोषित किया जाये ,यानि किसी क्षेत्र के सांसद या विधायक को यदि उस इलाके की जनता वापस बुला ले तो दूसरी वरीयता प्राप्त विजेता को पहले के स्थान पर नियुक्ति मिले ,ताकि तुरंत दुबारा चुनाव करवाने के खर्च एवं प्रशासनिक कार्यो की जरुरत न पड़े.
और अंतिम बात:
ये तो तय था की मंजर बदल जायेंगे
हालत जो बे काबू थे सुधर जायेंगे
इक तुम जो खालो कसम इन्कलाब की
वतन में हर तरफ बस अन्ना नजर आएंगे l
अजय सिंह "एकल"
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4 comments:
Ajay ji, Even the balance 30% MPs are not poor. And how many of them are working day and night, only to raise the 70% number. Where was Lalu ji 30 years back and where was Maya devi ji 20 years back. They were among those 30% mentioned by you. And Now ?????
Excellent Article
Nice article and I think these are very practical points which needs to be discussed at least by some media...thanks for sharing.
ऐसे लोग(अधिकारी) जो सरकार का पैसा खर्च कर रहें हैं उनका भी आकलन होना चाहिए|चुनाव का खर्च सबसे बड़ी समस्या भी बनी हुई है|
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