क्षमा कीजिये में आप की शान में गुस्ताखी नहीं कर रहा हूँ बल्कि १९९५ में आयी एक फिल्म का जिक्र कर रहा हूँ। और जिक्र कर रहा हूँ मानव स्वभाव का। असल में होता क्या है की चोर या चोरी की बात सुनते है हमारे मन में रुपये -पैसे की चोरी का ख्याल आता है। जीवन के अनुभव से यह बात समझ में आयी की रुपए- पैसे की चोरी सबसे निकृष्ट श्रेणी की चोरी है और साधारणतया यह अनपढ़ और अथवा गरीबो के द्वारा की जीवन की आवश्यकता पूर्ति के लिए की जाती है अथवा पढ़े लिखें और अपनी रोजी रोटी कमा सकने में समर्थ लोगो के द्वारा जीवन स्तर को बेहतर और बेहतर बनाने के लिए लालच के वशी भूत होने के कारण की जाती है। जैसे जैसे जीवन का अनुभव बढ़ता गया तो यह पता चला की यह चोरी तो बहुत छोटी है और पकडे जाने पर जेल ,मुकदमा इत्यदि तो होगा ही साथ ही समाज में स्वाभिमान के साथ जीने की संभावनाएं भी कम हो जाती है।
लेकिन यदि चोरी ऐसी हो जिसको करने सम्मान भी मिले और पैसे भी तो कैसा रहेगा? हमारे देश में नकली डिग्री लेकर काम करने वाले इंजीनयर ,डाक्टर, वकील ,प्रोफेसर यहाँ तक की ऐसे सरकारी कर्मचारियों की भी कमी नहीं जिन्होंने अपनी जाति का गलत सर्टिफिकेट लगा कर नौकरी प्राप्त की और प्रमोशन भी। कंसल्टेंट , साइन्टिस्ट,रिसर्चर्स के बीच तो यह बड़ी साधारण और रोजमर्रा का काम है। जो लोग आईडिया लाते और उस पर काम करते है उनके साथ ऐसा बरताव अक्सर हो जाता है। क्योंकि जब भी आप किसी आईडिया पर काम करते है तो वह आपको अपने दोस्तों अथवा टीम से शेयर करना होता है और शेयर करने के बाद आपका आईडिया केवल आपका नहीं रह जाता है। अब इसमें कोई ज्यादा सयाना हुआ तो आईडिया को लेकर आपसे पहले ही उसको अपने फेवर में उपयोग कर लेगा। पीएचडी के लिए रिसर्च कर रहे लोगो के साथ उनके गाइड ने अपने विद्यार्थी का लेख अपने नाम से छाप दिया ऐसा तो बहुत बार होता रहता है और इसको एक स्वाभाविक स्थित मान कर समझौता करने वाले विद्यार्थी भी आपको मिलेंगे और फिर अधिकांश लोग यही प्रैक्टिस भी करेंगे।
अभी हाल में ही ऐसा एक समाचार डॉ राधा कृष्णन सर्वपल्ली जो की देश के दूसरे राष्ट्रपति बने तथा भारत रत्न का अवार्ड भी उन्हें मिला। डॉ राधा कृष्णनन के जन्म दिन पर पुरे देश में टीचर्स डे मनाया जाता है और योग्य अध्यापको को पुरष्कृत भी किया जाता है। इनकी पीएचडी और लिखी हुई पुस्तक के बारे में महेंद्र यादव जी (वरिष्ठ पत्रकार, लेखक एवं संपादक ) ने आरोप लगाया है। प्रथम दृष्टया आरोप ठीक नहीं लगते है किन्तु अब बात उठी है तो उसपर चर्चा और सत्यता जानने की चाहत में यह लेख लिखने की हिम्मत जुटा पाया हूँ
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लेकिन बात यहाँ तक ही सीमित नहीं पिछले सप्ताह टाइम्स ऑफ़ इंडिया में प्रकाशित ऐसा ही एक समाचार जिसमे दुनियां के प्रतिष्ठित लेखक शेक्सपियर के बारे में ऐसी ही टिपण्णी की गयी है ध्यान देने योग्य है। और इससे मानव स्वभाव के सार्वभोमिकता और पुरातन समय से हो रहे चलन का पता चलना दिलचस्प है।
अंत में
हम सब चोर हैं
लेखक: यशपाल जैन
लेखक: यशपाल जैन
पुराने जमाने की बात है। एक आदमी को अपराध में पकड़ा गया। उसे राजा के
सामने पेश किया गया। उन दिनों चोरो को फाँसी की सजा दी जाती थी। अपराध
सिद्ध हो जाने पर इस आदमी को भी फाँसी की सजा मिली। राजा ने कहा, 'फाँसी पर
चढ़ने से पहले तुम्हारी कोई इच्छा हो तो बताओ।'
आदमी ने कहा, 'राजन! मैं मोती तैयार करना जानता हूँ। मेरी इच्छा है कि मरने से पहले कुछ मोती तैयार कर जाऊँ।'राजा ने उसकी बात मान ली और उसे कुछ दिन के लिए छोड़ दिया।
आदमी ने महल के पास एक खेत की जमीन को अच्छी तरह खोदा और समतल किया। राजा और उसके अधिकारी वहाँ मौजूद थे।
खेत ठीक होने पर उसने राजा से कहा, 'महाराज, मोती बोने के लिए जमीन तैयार है, लेकिन इसमें बीज वही डाल सकेगा, जिसने तन से या मन से कभी चोरी न की हो। मैं तो चोर हूँ, इसलिए बीज नहीं डाल सकता।'
राजा ने अपने अधिकारियों की ओर देखा। कोई भी उठकर नहीं आया।
तब राजा ने कहा, 'मैं तुम्हारी सजा माफ करता हूँ। हम सब चोर हैं। चोर चोर को क्या दंड देगा!'
अजय सिंह "जे एस के "