Wednesday, December 4, 2019

क्यों आवश्यक है व्यक्ति का सामाजिक प्रमाणीकरण ?

समाज की सेवा करना क्या कुछ लोगो का काम है ? क्या समाज की सेवा करने वाले लोग वह  है जिन्हे इसके अलावा कोई और काम नहीं ? क्या सेवा  कुछ सिरफिरे जुनूनी लोगो का काम है जो समाज में परिवर्तन लाने की चाह रखते है और उसमे अपना सहयोग करना चाहते है चाहे इसकी कीमत कुछ भी देनी पड़े। कुछ भी यानि कैरियर दांव पर, परिवार , व्यक्तिगत रिश्ते दांव पर परिणाम स्वरूप  जीवन भर का भटकाव। नहीं, समाज सेवा  कुछ लोगो की जिम्मेदारी  नहीं हो सकती है, क्यों  आइए इसे जरा विस्तार से समझते है।


मनुष्य एक सामाजिक प्राणी है। इसकी आवश्यकताएं केवल भौतिक आवश्यकताओं तक सीमित नहीं है। इस विषय पर अब्राहम मैस्लो नाम के एक सुप्रसिद्ध मनोविज्ञानी ने मनुष्य व्यहार (Human behavior ) का  एक बड़ा  उपयोगी सिद्धांत १९४३ में प्रतिपादित किया था।  मैनेजमेंट विषय में पढ़ाया जाने वाला यह एक महत्वपूर्ण सिद्धांत है जो यह बताता है कि किसी भी आदमी  का  व्यहार उसकी अपनी निजी  आवश्यकताओं के अनुसार बदलता है। हालाँकि इसका एक सामान्य क्रम है। इस क्रम में सबसे पहली आवश्यकता है,अपनी   शारीरिक  आवश्यक्ताओं  की  पूर्ति। जिसमे रोटी, कपडा  मकान इत्यादि के अलावा जैसे सोना ,यौन क्रिया इत्यादि शामिल है । फिर आता है जीवन में आने वाली तरह-तरह की परेशानियों से मुक्ति के लिए सुरक्षा इसमें शामिल है जीवन यापन के लिए पर्याप्त धन,अच्छा स्वास्थ ,परिवार इत्यादि की प्राप्ति । इन दो आवश्यकताओं की पूर्ति के बाद नंबर आता है दोस्तों, परिवारजनों के बीच आदर जिससे उसमे सामाजिक प्राणी होने का भाव जाग्रत होता है। दुनिया में ८० प्रतिशत लोग इन तीन आवश्यकताओं की पूर्ति में  ही पूरा जीवन  बिताते है। इस क्रम में अगला  नंबर आता  है  समाज में पहचान बनाने का एवं  प्रसिद्धि पाने का । और अंत  में आदमी  सेल्फ रिअलाइजेशन यानि मैं कौन हूँ ? मेरा जन्म क्यों हुआ है इत्यादि प्रश्नों  के उत्तर पाना चाहता है , ताकि इस जीवन मरण से सदैव के लिए मुक्ति मिले और  मोक्ष प्राप्ति की और अग्रसर हो  सके । 

मैसलो नियम के अनुसार साधारणतया मनुष्य  पहली और दूसरी आवश्यकता पूर्ति के बाद ही  तीसरी आवश्यकता पूर्ति के लिए काम शुरू करता है। लेकिन  बहुत से लोग जिन्होंने  जीवन में समाज सेवा का   मन बना लिया  है तो  वह पहली दूसरी तो क्या तीसरी की भी न परवाह करते है न चाह।  देश में दर्जनों ऐसे उदाहरण मौजूद है जिन्होने इस नियम के अपवाद के उदहारण समाज के सामने रखे है। इनमे से कुछ की सामाजिक  उपलब्धियाँ इतनी बड़ी थी की  चौथे और पाँचवे नंबर की आवश्यकताओं की पूर्ति होती लगती है  लेकिन  यह उनका जीवन  उद्देश्य न होकर  लक्ष्य था समाज  सेवा । अतः अनजाने में ही  उनकी चौथी और पांचवीं आवश्यकता की पूर्ति होती मालूम पड़ती है। यह उन लोगो के लिए तो ठीक  कहा जा सकता है जिनकी उपलब्धिया इतनी बड़ी थी की समाज में उन्हें उच्च सम्मान अपने कार्यो के परिणाम स्वरुप प्राप्त हुआ। लेकिन समाज में एक बड़ा वर्ग ऐसा भी है जिसकी उपलब्धियाँ इतनी बड़ी नहीं है जिससे ऐसा लगे की यह लोग उच्च आवश्यक्ताओं के लिए काम कर रहे है  किन्तु इनकी अनुपस्थित आसानी से महसूस की जाती है। यही नहीं  बहुत से  लोग जिनको बड़ी  उपलब्धियां प्राप्त  हुई है उनको  भी बड़ी उपलब्धियाँ ऐसे लोगो के योगदान के बिना संभव   नहीं हो सकती थी । समाज में अनेक ऐसे समाज सेवी संगठन है जिसके साथ काम करने वाले हजारों लोग अपने जीवन की आहुति समाज सेवा के लिए बिना किसी अपेक्षा के केवल अपनी जुनूनी प्रवृति के कारण अथवा किसी महान व्यक्ति को आदर्श मैंने के कारण समाज  सेवा की राह  पर चल पड़ते है।  राष्ट्रीय स्वयँ सेवक संघ के प्रचारक इस तरह के समाज सेविओं का एक बड़ा उदाहरण  है। जिनके योगदान से ही समाज का संगठन,और चरित्र निर्माण इत्यादि होता है। 

अब आते है मूल सवाल पर की समाज की सेवा सबका काम है या कुछ विशेष लोगो का। जो मनुष्य जीवन को एक अवसर  मानते है मनुष्यता की सेवा करने  का । जब हम यह कहते है की मनुष्य एक सामाजिक प्राणी है तो उसके पीछे जो भाव है वह यह है की मनुष्य अकेला नहीं रह सकता। इसीलिए मनुष्य  समाज के  निर्माण में  अपना योगदान कर इसे  बनाता है और  फिर इसका उपभोग करता है। परन्तु समाज में देखने से पता चलता है की एक वर्ग अपना अधिकांश समय  पहली ,दूसरी  और तीसरी आवश्यकता की पूर्ति   में लगाता है लेकिन जब संसाधनों के  उपभोग की बारी आती  है  तब सबसे ज्यादा उपभोग उन्ही के द्वारा होता है जिन्होंने इसके लिए सबसे कम योगदान किया है। चूँकि सामाजिक संरचना ऐसी है की संसाधनों के  उपभोग की सुविधा पैसे के बदले में आसानी से  उपलब्ध हो जाती अतः  यह  तरीका सरल है और कम समय में  उपभोग की सुविधा  प्राप्ति हो जाती है। इस व्यस्था  का ही  परिणाम है की समाज सेवा में लगे हुए लोग भौतिक सुख से तो वंचित रहते ही है साथ ही उनकी सेवा के परिणाम स्वरुप समाज में हुए सकारात्मक परिवर्तन के कारण  अपने योगदान के लिए जिस स्वाभाविक सम्मान के वे  अधिकारी  है वह भी मुश्किल से ही मिलता है। नतीजा, समाज सेवा को  जीविका  का विकल्प बनाये जाने के   लिए  प्रेरणा का अभाव रहता है। जिससे समाज में अनेक प्रकार की विकृतियाँ होती है और उसका खामियाजा किसी न किसी  रूप में समाज के सभी लोगो  को भुगतना पड़ता है। असल में समाज में सेवा करने वाले लोग दूध में चीनी की तरह है जिनका काम दिखता नहीं है किन्तु इसका अभाव जरूर महसूस होता है। 

समाज में गुणात्मक परिवर्तन के लिए इस व्यस्था में  परिवर्तन की  आवश्यकता है। नयी व्यस्था में जिसका जितना योगदान उतना उसका प्रतिफल के सिद्धांत को अमल में लाना चाहिए।  समाज  सेवा के लिए संकल्पित लोगो को साधारणतया  जीवन व्यापन के लिए मानधन  ऐसे  व्यापारिक प्रतिष्ठानों से प्राप्त होता है जिनकी सामाजिक कार्यो में रुचि हो अथवा  सामाजिक दाईत्व कानून का निर्वाह करने हेतु बड़े व्यापारिक  प्रतिष्ठान इस कार्य के लिए अपना योगदान करते है। सरकार के द्वारा इस  योगदान को कर में छूट देकर   सम्मानित किया जाता है।  इस तरह सामाजिक दाइत्वों का निर्वाह समाज की अलग अलग इकाईओं द्वारा होता है। 

समाज की आवश्यकताओं की पूर्ति के लिए यह व्यस्था ठीक है परन्तु  पर्याप्त नहीं है। दरअसल इस व्यस्था की एक बड़ी  खामी है की यह समाज के सभी लोगो को योगदान करने के लिए न प्रेरित करती है न मजबूर करती है। वैकल्पिक व्यस्था के रुप में जैसे वित्तीय विश्वसनीयता के प्रमाणी करण का क़ानूनी  प्रावधान है, उसी प्रकार  का प्रावधान सामाजिक प्रमाणी करण के लिए भी बनाये जाने की आवश्यकता है। जैसे एक बार वित्तीय सुविधाओं का दुरपयोग  करने पर दोबारा यह सुविधा उपलब्ध नहीं  होती है  उसी तरह समाज के संसाधनों का एक बार दुरुपयोग  किये  जाने के बाद उसी व्यक्ति द्वारा दोबारा दुरपयोग किये जाने की सम्भावना ख़तम हो जानी चाहिये। यह नियम समाज के लोगो को समाजोपयोगी  कार्यो को करने  के लिए प्रोत्साहित करेगा। यदि इसका प्रमाणी करण भी  हो  सके तो इसमें अपना योगदान करने के लिए हर व्यक्ति प्रेरित हो सकेगा। और संसाधनों के उपभोग के साथ ही निर्माण में भी  योगदान अपनी दिनचर्या में कुछ समय समाज के लिए देना है इसका निर्धारण करेगा।  साथ ही जैसे  अन्य दैनिक कार्य नियमित करने का नियम दिनचर्या में होता  है उसी तरह समाज निर्माण में  भी उसका योगदान सुनिश्चित  हो जायेगा। यह पहल  समाज निर्माण में  एक नई शुरुवात होगी।  

विद्यार्थी जीवन में एन सी सी और एन  एस एस  जैसे अन्य सामाजिक कार्यक्रमों में साधारणतया काफी विद्यार्थियों की  भागीदारी रहती है। इसका मुख्य कारण है की इस तरह की भागीदारी नौकरी प्राप्ति में सहायक होती  है। इसलिए इसमें विद्यार्थियों की  उत्साह पूर्वक भागीदारी होती है।  पश्चिमी देशों में तो उच्च शिक्षा में  प्रवेश  के लिए  यह एक  आवश्यक शर्त है। आज आवश्यकता इस बात की है कि  यह प्रेरणा विद्यार्थी जीवन के बाद भी बनी  रहे।  

यहाँ एक बात को समझना बड़ा महत्वपूर्ण है कि सनातन संस्कृति में  सम्प्रदाय, समुदाय की अवधारणा है जिसमे हर व्यक्ति का योगदान होता है। इसके निर्माण में हर किसी का सक्रिय सहयोग ही धर्म है।  भीष्म पितामह ने भी कहा है 
अजीजीविषवो विद्यम यशः कामो समन्ततः।
ते  सर्वे नर  पापिष्ठाह  धर्मस्य   परिपंथिन:।।

अर्थात जो व्यक्ति अपने ज्ञान व क्षमताओं का उपयोग केवल अर्थ और काम के लिए करते हैं वे सभी घोर पापी एवं धर्म द्रोही हैं।इससे बचने के लिए धर्म और मोक्ष में भी अपने ज्ञान व क्षमता का उपयोग करना होगा, इसी को समष्टि, समुदाय, सम्प्रदाय एवं वर्तमान में समाज की सेवा कहा जाता है।धर्म व मोक्ष के रूप में समष्टि अभ्युदय हर मनुष्य का नैसर्गिक/धार्मिक दायित्व है।

अतः यह आवश्यक है की ऐसा तन्त्र विकसित किया जाये जो सेवा के कर्तव्य पालन के लिए सभी लोगो को प्रेरित और प्रोत्साहित करे ताकि सबका समावेशी विकास सुनश्चित किया जा सकेगा। तभी हम आदर्श समाज की स्थापना का लक्ष्य प्राप्त करने की और अग्रसर हो सकेंगे।  

अजय सिंह "एकल"




 और अन्त मे  

                                                    चिंता तो मुझे भी थी बहुत देश के लिए 
मगर जब पेट भर गया तो नींद आ गयी 

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