दोस्तों,
सवाल यह नहीं है की हमने पिछले पैसठ साल कैसे गुजारे है सवाल यह है की हम आगे कैसे जीना चाहते है और उसको प्राप्त करने के लिए हम क्या कीमत देने को तैयार है?हम गणतंत्र का 63वां वर्ष मनाने की तैयारियो में लगे है फिर एक दिन की छुट्टी मिलेगी, राष्ट्र के नाम संबोधन होगा, कुछ झाँकिया राजपथ पर निकलेंगी और स्कूलों में लड्डू बांटे जायँगे।कभी न पूरी होने वाली कुछ घोषणlये राजनैतिक हितो को साधने के लिए की जाएँगी लेकिन क्या इस सबके लिए ही गणतंत्र दिवस देश में मनाया जाता है? या हम इस दिन बैठ कर आत्मविश्लेषण कर सकते है की देश के सामने क्या लक्ष्य है,हमारे नैतिक मूल्य में क्या बदलाव लाने की जरुरत है हम आखिर जाना कहाँ चाहते और हम ऐसा क्या करे की हमें वह मिले जिसकी कल्पना हमारे संविधान निर्माताओ ने की थी।
राष्ट्रीय शर्म के काम तो हम लोग, हमारे राजनीतिज्ञ और पत्रकार बन्धू जाने अनजाने करते ही रहते है।सरकारी अधिकारियो खास कर पुलिस और अन्य सबसे ऊँचे तबके के अधिकारियो को तो बाकायदा सरकार ने ऐसा करने का लाइसेंस भी दिया है और तन्खवा भी देती है।और अब यह सब धीरे धीरे आम जनता के सामने आ भी रहा है। लेकिन इस सबका दोषी केवल उन्ही लोगो को नहीं ठहराया जा सकता है जिनके ऊपर गलत करने का आरोप है दोषी तो हम लोग भी है जिन्होंने परिवर्तन के लिए आवाज नहीं उठाई और यथा स्थिति को स्वीकार किया या जो थोड़ी बहुत परिवर्तन की कोशिश समय समय पर हुई उसको ऊपर -ऊपर से परवर्तित होते देख संतोष कर लिया। जैसा 1974 में जय प्रकाश जी के आन्दोलन के बाद हुआ था और आपात काल के बाद जनता पार्टी का राज्य आया था और कई नए राजनीतिज्ञों के उदय होने पर नयी आशा की जो किरण दिखी थी मुश्किल से 3-4 साल में ही लुप्त हो गयी और फिर वही लोग सत्ता पर काबिज हो गए जिन्हें जनता ने थोडा पहले ही हटाया था।
अब हम फिर अपने मूल प्रश्न पर लौटते है,की हम क्या परिवर्तन चाहते है और उसके लिए क्या मूल्य दे सकते है?क्योंकि चाहने और प्राप्त करने के बीच मूल्य देने के प्रश्न पर हम आमतौर पर बगले झाकते नजर आते है और उम्मीद करते है की यह काम कोई और ही करदे तो अच्छा है लेकिन ऐसा होता नहीं है। नयी पीढ़ी को कोसना भी हमारी आदतों में शुमार है।मगर दिल्ली रैप कांड की एक घटना ने दिखा दिया की देश के नवजवानों में आज भी भगत सिंह की तरह आत्म बलिदान करने का जज्बा है,पिछले साल अन्ना आन्दोलन के समय नौजवानों के उत्साह को देख कर लोगो ने इसे क्षणिक उत्साह की संज्ञा देकर अपने कर्तव्य की इतिश्री कर ली थी।लेकिन इसबार नौजवानों ने जिस तरह का उत्साह दिखाया है और व्यवस्था को नंगा किया है उससे
यह तय है की देश के नौजवान ऊर्जा से भरपूर है।
आश्चर्य है की इस देश की व्यस्था ऐसी है की फेस बुक पर कमेन्ट लिखने के लिए जेल दी जाती है,पीड़ित का इंटरव्यू दिखाने के लिये चैनल पर मुकदमा किया जाता है पीड़ित को मरना निश्चित हो जाने के बाद ड़ेमेज कंट्रोल के लिए सिंगापुर भेज देते है लेकिन उसी के साथ घायल हुए लड़के का इलाज हिन्दुस्तान में भी सरकार नहीं करवा रही है और उसे इसके लिए संघर्ष करना पड़ रहा है। दूसरी ओर आंध्र प्रदेश के एक एम् एल ये द्वारा दिए गए हिंसक और भड़काऊ बयांन के बाद प्रदेश या केन्द्र सरकार की और से कोई कार्यवाही नहीं हो रही है। देश के गृह मंत्री जो अतंकवादियो को भी जी लगा कर बुलाते है वही मंत्री यह पूछे जाने पर की नवजवान प्रदर्शनकारियो से मिल कर बात क्यों नहीं करते कहते है की यदि नक्सली राजपथ पर आ आजाएं तो क्या मंत्री उनसे मिलने जायेगा।राहुल गाँधी जिन युवाओं का प्रतिनिधित्व करने का दावा करते है वोह भी कहीं नजर नहीं आये। क्या हमारी सोंच की दिशा केवल जनता के वोट लेकर उसको ही जलील करने का प्रयास करती है। समस्याए बहुत है समाधान भी हमें सोचना है। आगे की कुछ कड़ियो पर हम इसकी चर्चा करेंगे।
और अंत में
आदमी को पैर का जूता मत समझ
वक्त का जूता पड़ेगा आदमी बन जायेगा।
अजय सिंह "एकल"
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