Tuesday, October 23, 2012

हमाम में नंगे लोग

दोस्तों,
लोग पहले हमाम में नंगे होते थे अब पब्लिक में है, कुछ की खुल गई है कुछ की खुलने वाली है।किसी को 10 करोड़ का फ्लैट 80 लाख में मिलता है तो किसी की कार के ड्राईवर  कम्पनी  में डायरेक्टर है। एक को करोड़ो रुपये बिना ब्याज बिना सिकुरिटी के  एक नहीं कई सालो के लिए मिल जाते है तो एक के सेबों के बाग़  सात लाख सालना आमदनी के बजाये  एक साल में  पांच करोड़ की आमदनी करने लग  गए है।कौन किसकी कहे इसलिए सब एक दूसरे की तारीफ में लगे है। दुनिया के बड़े-बड़े मैनेजमेन्ट कालेजो के लिए यह अच्छी केस स्टडी हो सकती है।कंपनी मुनाफा कैसे कमाती है ,कुशल व्यापारी 50 लाख की पूंजी लगा कर चाँद सालो में 300 करोड़ के मालिक कैसे बनते है।मुंबई की चाल में करोड़ो का व्यापर करने वाली कंपनी कैसे अपना दफ्तर चलाती है। देश के प्रधान मंत्री को पता ही नहीं चला कब  उनकी नाक के नीचे ही  पैसे पेड पर उगने लगगये और उनका अर्थ शास्त्र कब और कैसे फेल हो गया।

चपन मैं पढाई गयी पंचतन्त्र की कहानिया केवल चरित्र निर्माण ही नहीं करती बल्कि आदमी की समझ भी बढाती है और जीवन जीने की कला सिखाती है।भारत के कानून मंत्री की पत्नी के द्वारा चलाये जाने वाले एनजीओ पर भ्रष्टाचार के खुलासे के बाद खुर्शिद साहेब को कुछ सूझ नहीं रहा है इसीलिए तो कभी हाई कमांड तो छोड़िये उनके के दामाद को क्लीन चिट भी दे रहे है और उनके लिए जान देने को भी  तैयार है और कभी अरविन्द केजरीवाल को  फरुखाबाद से सलामत वापस आने की चुनौती दे रहे है। आज तो उनके एक बयान ने सिद्ध कर  दिया  की उनका व्यहारिक ज्ञान बिलकुल जीरो है नहीं तो अरविन्द केजरीवाल को  चीटी  कह कर  वह  हाथी की तुलना अपने से नहीं करते।शायद उन्हें नहीं पता की चीटी अगर हाथी  की  सूँड में घुस जाये तो जान भी ले सकती है। दूसरी विशेषता यह  भी की हाथी की पीठ  पर चीटी नाच सकती है लेकिन हाथी ऐसा नहीं कर  सकता। इसलिए मंत्री जी सावधान चींटियो  ने झंडा उठा लिया है और आपका मंत्री पद खतरे मैं है।

भारत सरकार  के इस्पात मंत्री तो अजब -गजब है कहते है आखिर केंद्र के मंत्री की भी   कोई इज्जत है,हैसियत है।अब वोह घोटाला करे तो कम से कम 71 करोड़ का तो होना चाहिए क्या आपने 71 लाख का आरोप लगा दिया है। इतने रुपये का घोटाला तो हमारे यहाँ बाबू  लोग कर लेते है। यानि मंत्री जी एनजीओ की बेमानी की मुकालफत करने के बजाय अपनी बेमानी के स्टैण्डर्ड का बखान कर रहे है।और अपने दोस्त का  पूरी शिद्दत से साथ दे रहे है इसे कहते है मौसेरे भाई का रिश्ता।
मैंने तो बच्चो को कैरियर काउंसलिंग मे  इंजिनियर, डाक्टर वगैरा की पढाई  छोड़ कर किसी गडकरी जैसे के यहाँ ड्राईवर या बेनी बाबू जैसे लोगो के यहाँ बाबू  बनने की सलाह देना शुरू कर दिया है।और अगर ज्यादा  महत्वाकान्छी  हो और आवारा गर्दी के अलावा कुछ नहीं कर सकते तो वाड्रा की तरह किसी खानदानी लड़की से शादी करने की योजना बनाना अबकी की जिन्दगी आराम से काटने के लिए अच्छा पेशा हो सकता है। नहीं तो पढ़ लिख कर नवीन जिंदल  या मनोज जैसवाल जैसे किसी घोटाले बाज के यहाँ चंद रुपयों की नौकरी करते नजर आओगे। यदि घोटाले की जाँच हुई और जेल जाने को नौबत आयी तो गौतम दोषी या हरी नैअर की तरह तिहाड़ में भी जाना
 पड़ सकता है। वैसे रावन की सेना में भर्ती खुले तो उसमे भी जाने का विचार अच्छा है।अब राम तो सतयुग मैं आएंगे और तब तक तो रावन का ही राज् रहने वाला है। इसलिए सबसे अच्छा कैरिअर  और अकूत पैसे की वर्षा वही होगी।तो या तो उसे स्वीकार कर लो नहीं तो जिन्दगी भर पता ही नहीं चलेगा की आप  महान भारत में  रहते है या  बनाना रिपब्लिक में जहाँ वोट देकर और  अपने ऊपर टैक्स लगवा कर चोरो और लुटेरो की तिजोरी भरने की व्यवस्था करते है।


नव रात्रि एवं विजय दशमी की शुभ कामनाओ के साथ 

अजय सिंह "एकल"

Sunday, October 14, 2012

बनाना रिपब्लिक का आम आदमी

 दोस्तों,
पिछले सप्ताह देश में एक ऐसी घटना घट गई जिसने मेरी नींद उड़ा दी है और बेचैन  कर दिया हालाकिं इस समाचार पर  समाचार पत्रों और दूरदर्शन पर बहस बहुत हुयी है लेकिन मेरी चिंता कुछ फर्क है और लोगो की चिंता से।

हुआ ये की अरविन्द केजरीवाल के डी .एल .एफ . और  वाड्रा सम्बन्धो के खुलासे पर वाड्रा साहेब खुन्दक खा गये और भारत देश और जनता की तुलना "मैंगो मैन आफ बनाना रिपब्लिक " कहकर कर दी .यहाँ तक तो ठीक था भारत के आम को कोई कुछ भी कहे इस से कहने वाले को भले आत्म संतुष्टि मिलती हो, आम आदमी कोई फर्क नहीं पड़ता इसलिए नहीं की वह कुछ  जानती समझती नहीं  बल्कि इस लिए कि उसकी अपनी मजबूरिया उसे और कुछ सोचने की फुर्सत ही नहीं देती। खैर देश के पहले परिवार के दामाद का यह सोचना मुझे कुछ ज्यादा  ठीक नहीं लगा फिरभी मैंने सोचा की चलो कोई बात नहीं, आम तो होता इसीलिए है जो चाहे निचोड़े चूसे और फेंक दे. आम को क्या फर्क पड़ता है। लेकिन अब समस्या ज्यादा विकट  है।
आम जनता का ख़िताब पाए हर आदमी की आखरी तम्मना होती है खास बनना।और वो सारी  जिन्दगी इसी कोशिश में लगा रहता है।इसके लिए चोरी करना, राजनीत करना और भी बहुत कुछ करना पड़ता है लेकिन अब तो हद हो गयी है । गाँधी परिवार के  दामाद राबर्ट बडेरा जो दामाद बनने के पहले आम (दसहरी ) थे   और गाँधी परिवार में शादी करके खास बन गये  है वो फिर  से आम (अलफांसो )बनना चाहते  है।एक ऐसा आम आदमी जिसके पास रु 300 करोड़ का बैंक बैलेंस है जिसको बचाने  के लिए देश का कानून मंत्री जान देने को तैयार है, वित्त मंत्री कानून बदलने को तत्पर है।

कहाँ   चोराहे की लाल बत्ती पर पुलिस द्वारा  रोके जाने  पर गिडगिडाने वाला बेचारा आम आदमी राशन की दुकानों का चक्कर लगने वाला आदमी ,कहाँ एक अदद राशन कार्ड के लिए धक्के खाने वाला आदमी ,कहा सरकारी बस में पसीना बहाने  वाला जिसको मैं अबतक देश का आम आदमी समझता  था, मुझे अचानक लगा की मैं स्वप्न लोक मैं विचरण कर रहा हूँ जहाँ आम आदमी का बैंक बैलेंस इतना है की आधा शहर  खरीद ले,चमचमाती बड़ी कार मे  घूम रहा है, पुलिस वाला सलाम कर रहा है और साल मैं 6-7 नहीं सब्सिडी वाले  60-70 गैस सिलेण्डर मिलते है और कोई मंत्री इस सब्सिडी का भार सहने के लिए मना नहीं करता बल्कि और भी भार  सहने को ख़ुशी-ख़ुशी तैआर है।फर्जी बैलेंस शीट में जारी आकड़ो को खुद कार्पोरेट अफेअर मंत्री सही होने का प्रमाण दे रहे है। बड़ी मुश्किल से वफादारी का प्रमाण देने का समय मिला है अतः हरकोई एक दूसरे से आगे निकलना चाहता है।पता नहीं फिर  मौका कब मिलेगा अरविन्द केजरीवाल भी मानते है की इस मौके पर चूके तो अगला मौका चालीस साल बाद आयेगा।

जब से अरविन्द  और वाड्रा  साहेब में आम आदमी बनने को होड़ लगी है लोग खास की बजाय आम बनना चाहते है।    मैनेजमेन्ट  की भाषा मैं इसे कहते है प्रतिमान बदलना अर्थात पैराडाइम   शिफ्ट।अब इस देश का आम आदमी खास बनने की कोशिश नहीं करेगा बल्कि खास लोग आम बनने की कोशिश  करेंगे।चाहे वो देश के प्रथम राजनैतिक परिवार के दामाद राबर्ट वाड्रा हो या भारतीय रेवेन्यू सेवा के पूर्व अधिकारी अरविन्द केजरीवाल।चलो इस बहाने कम से कम देश के 70 करोड़ लोगो को खाना मिलने लगेगा और लंगोटी भी।

और अंत में  


हम जानते है जन्नत की हकीकत को    
दिल बहलाने को ग़ालिब ख्याल अच्छा है।
                                                        मिर्जा ग़ालिब 

अजय सिंह "एकल"

Tuesday, October 2, 2012

असली गाँधी नकली गाँधी

दोस्तों ,
दुनिया के लिए दुनिया में एक ही गाँधी होंगे,जिनको लोग प्यार और सम्मान से महात्मा गाँधी पुकारते थे।लेकिन गाँधी के देश में इतने गाँधी हैं की पहचानना मुश्किल है की कौन असली है और कौन नकली।दर असल नकली गाँधी की पैकिंग  इतनी अच्छी और आकर्षक है की लगता है असली को छोड़ नकली से ही काम चला ले। अब आप सोच रहे होंगे की गाँधी के जन्म दिन पर यह क्या राग अलापने लग गए ,पर घबराइए नहीं हम आपको कुछ मजेदार बाते बताने जा रहे है जो आपको आनंदित भी करेंगी और मनोरंजन भी।

आज सुबह मैंने एक मित्र को फोन कर गाँधी जयंती की जब बधाई दी तो उन्होंने रिटर्न गिफ्ट की तरह मुझे भी बधाई दे दी और कहा की मैं चाहता हूँ की गाँधी जी हमेशा आप की जेब मैं रहे ( I wish Gandhi should always remain in your pocket)  । यह सुन कर मैं आश्चर्य में  पड़ गया क्योकि अब तक मैं गाँधी को दिल मैं रखकर उनके आचरण का पालन करने की ही कामना करता था तो मैंने उनसे पूछ लिया की येसा क्यों कह रहे है   तो वह  बोले  कि भईया गाँधी दिल -विल मैं तो बहुत रह लिए अब तो दुनिया उसी की सुनती है, उसी को पूजती  है जिसकी जेब मैं गाँधी यानि वोह करेन्सी नोट है जिस पर देश के  राष्ट्र पिता की फोटो छपी है।

भौतिक शास्त्र (Physics) का  एक  सिद्धान्त है की समान चीजे  एक दूसरे  को आकर्षित करती है इस नियम के हिसाब से गाँधी (करेंसी ) गाँधी नाम वालो के पास ही  जा रही है। कल गुजरात के मुख्यमंत्री जी ने बताया की श्रीमती सोनिया गाँधी ने यू पी ये (दो ) के कार्य काल में अपनी विदेश यात्रा में 1800 करोड़ गांधियो को खर्च किया है।अब इनकी कोई फैक्टरियां तो चलती नहीं है और न पिता जी इटली के राजा थे तो इतने गाँधी तो नाम से ही आकर्षित हुए होंगे न। और आपको पता है की दूध देने  (कमाई करने )वाली काली मोटी भैंस जब अपनी  नांद मैं   खाना खाती है तो चारो ओर इतना गिर जाता है  की अगल बगल वालो यानि दिग्विजय और सिब्बल जैसे लोग उसी से काम चला लेते है।

देश के वर्तमान प्रधान मंत्री गाँधी जी के आदर्शो पर चलने के कारण ही कुर्ता - पैजामा  पहनते है और न बोलते है न सुनते है और न देखते है। कहते है कि  एक ख़ामोशी हजारो बातो से बेहतर है ,लोग चाहे मोटा माल कमाए या पतला, चाहे कैग कुछ कहे या सुप्रीम कोर्ट मैं तो गाँधी वादी हूँ मैं न देखता हूँ न सुनता हूँ न बोलता हूँ।और करेंसी नोटों छपे गाँधी को अगर इस देश ने पिता माना है तो उसपर हस्ताक्षर तो मेरे ही है इसलिए देख लेना एक दिन लोग मुझे भी पापा (सरदारों को लोग वैसे भी पापा कहते है ) मानेंगे।इस देश  की जनता ऐसी है कि मौका पड़ने पर तो गधे को भी बाप बना लेती है तो फिर मैंने तो रुपये देने का वचन देकर हस्ताक्षर भी  किया है।
पता नहीं महान वैज्ञानिक आइन्स्टीन ने कब और क्यों कहा था की सौं साल बाद यह कल्पना भी मुश्किल होगी की दुनिया मैं महात्मा गाँधी जैसा कोई व्यक्ति पैदा हुआ था। लेकिन  मुझे तो लगता है की अब से पचास साल बाद ही यह बात कल्पना के बाहर होगी की गाँधी के देश मैं पैदा हुए गांधियों ने देश का बेड़ा कैसे गर्क किया है। महात्मा गाँधी जहाँ अपनी सारी परिभाषा देश के अन्तिम आदमी को ध्यान में रखकर गढ़ते थे, उसी देश के सत्ता मैं बैठे महान नेताओं की कोशिश है की कोई भी लाभ उसको न पहुचे जिसके वोट ले कर यह यहाँ तक  पहुचे हैं।अगर ऐसा न होता तो नवीन जिंदल और मनोज जयसवाल जैसे लोगो को झूठे कागजो पर कोयले की खाने न बटती। रिलाएंस और भारती मित्तल के घरानों को सस्ते स्पेक्ट्रम न बटते।वालमार्ट जैसे उद्योगों को जिन्हें अमरीका की जनता और सरकार ने अस्वीकार कर दिया, को भारत मैं लाने  की वकालत गाँधी वादी काँग्रेसी नेता और सरकार न करती।  और देश की गरीब जनता का निवाला देश के अरबपतियो को मुहायिया न कराती। इस देश की अर्थव्यस्था गैस सिलिंडर की सब्सडी का बोझ इस लिए नहीं उठा सकती की  नकली गांधियो का बोझ इतना ज्यादा है कि उसी को उठाने मैं वह ख़राब हुई जा रही है।

मुझे देश के प्राचीन  शहर बनारस के बारे मैं कही गयी बात "रांड ,सांड सीढ़ी सन्यासी ,इनसे बचे तो सेवे काशी " याद आ रही हैजिसका सीधा अर्थ यह है की भ्रष्टाचार और देश को बेचने की तरकीबे ढूढने से फुर्सत मिले तो देश हित की बात सोंचे। नेता लोग भजन गा रहे है "मेरे तो गाँधी ही गाँधी ,केवल गाँधी ,बूढ़े गाँधी ,जवान गाँधी, जिन्दा गाँधी ,मुर्दा गाँधी दूसरो न कोई, जो नोट पर छपा हुआ वही मेरो सब कोई  "
गाँधी का  जन्म दिन मुबारक,और शास्त्री जी का भी  .

हर  भारतीय की  अंतिम इच्छा 
जिसदिन T20 का फाइनल मैच हो उसदिन किसी की मौत न हो ,क्योंकी भारत  में उस दिन कन्धा देने वाले नहीं  मिलेंगे।
 और 
 2अक्टूबर को घर में कोई पैदा न हो, नहीं  तो फिर चाहे वह लाल बहादुर शास्त्री की तरह का महान व्यक्ति  ही क्यों न हो जाये न जनता याद करेगी और न मीडिया।

अजय सिंह "एकल"