Wednesday, September 19, 2018

संघ का बदलता चेहरा : इति श्री भागवत कथा

दोस्तों ,

पिछले तीन दिनों से दिल्ली के विज्ञान भवन में राष्ट्रीय स्वं सेवक संघ का 'भविष्य के भारत' संवाद के नाम से एक परिचर्चा का आयोजन चल रहा था जिसका समापन आज शाम को लगभग ९० मिनट प्रश्नोत्तर के साथ हुआ। इस तरह समाज के विशिस्ट लोगो के साथ बैठ कर खुली चर्चा और फिर तमाम सवालों के जवाब जिनसे संघ अधिकारी अक्सर कतराते दिखते थे, का जवाब खुद संघ प्रमुख मोहन भागवत  ने दिया। यह अपनी तरह का पहला प्रयास संघ के द्वारा किया गया है। यह अति स्वागत योग्य कदम है। दुनिया के सबसे बड़े समाज सेवी संगठन जिसने समाज के सभी वर्गों में काम करके अपनी जगह बनाई है और अनेक वर्षो तक देश की सरकारों के विरोध के बावजूद उत्तरोत्तर प्रगति की है।  यह आयोजन  निश्चित रूप से  संघ के बारे में निहित स्वार्थी लोगो द्वारा राजनैतिक कारणों  से  अथवा व्यक्तिगत लाभ से प्रेरित  हो कर दुष्प्रचार का प्रभाव कम करने में सहायक सिद्ध होगा। शायद कार्यक्रम आयोजित करने के पीछे यह  एक महत्व पूर्ण कारण  भी होगा ऐसा मेरा मानना है। 

कई लोगो का कहना  है कि इस कार्यक्रम का एक उद्देश्य भाजपा को राजनैतिक लाभ पहुँचाना है परन्तु मुझे लगता है यह सोच बहुत संकीर्ण है।  हाँ इसका लाभ भाजपा को इसलिए मिल जाए की संघ के बारे में बहुत से लोग जो इसके बारे में सुनी सुनाई बातों पर विश्वास करते थे उन  की राय बदल गयी है तो इसको कार्यक्रम आयोजित करने का कारण न मान कर केवल इसका प्रभाव मानना ज्यादा उचित होगा। 

दुनिया में बहुत कम संगठन है जिनकी आयु पचास वर्ष से अधिक है ख़ास तौर  पर सामाजिक संगठन जिसमे सीधा व्यक्तिगत लाभ हो की  सम्भवना नहीं रहती है, आर एस एस एक अपवाद माना जा सकता। जिसने तिरानवे वर्ष की आयु पूरी की है कोई संगठनात्मक विववाद या  बॅटवारा इत्यादि नहीं हुआ जबकि संगठन का कोई औपचारिक पंजीकरण तक
नहीं है। इतना बड़ा संगठन केवल आपसी विश्वास और ध्येय प्राप्ति के लक्ष्य को ध्यान में रख कर सब काम करता है। हालाँकि सरसंघ चालक जी ने प्रश्नोत्तर में यह साफ़ कर दिया की संगठन किसी अन्य पंजीकृत संगठन के लिए बने नियमो का कड़ाई से केवल पालन ही नहीं करता है अपितु उसमे श्रेष्टता भी हासिल किये हुए है। चाहे अर्थ व्यहार के खातों का ऑडिट हो अथवा संगठन का चुनाव जो हर तीसरे साल होते हे केवल एक बार आपात काल के दौरान विशेष परिस्थितयों में ही देरी हुई  है और उसे भी आपात काल के हटते ही १९७७ में करवाया गया। यानि हर स्तर पर अनुशासन का पालन। 


एक बात जो बड़ी महत्व पूर्ण है वह है किसी भी संगठन खास तोर पर सामाजिक संगठन उसको बहते पानी की तरह नए विचारों को अपनाना और जो समय के साथ अनुपयोगी हो गया है उसको बदलना या छोड़ना संगठन की प्रगति के लिए आवशयक है। इस विषय पर बोलते हुए संघ चालक जी ने  पूजनीय गुरु जी के भाषणों पर आधारित "बंच ऑफ थॉट्स" के बारे में भी कहा की उसको समय की आवश्यकता और परिस्थित के अनुसार की परखना चाहिए इसलिए इस पुस्तक में दिए गए विचारो में जो शास्वत है उनका एक अलग संग्रह प्रकाशित किया गया उस को पढ़ना चाहिए। अन्य महत्वपूर्ण बातो में संघ का नजरिया जो समय के साथ बदला है उस पर चर्चा करके न केवल आलोचकों को बल्कि  पुराने स्वयं सेवकों को भी चौंकाया है।

संघ का यह सराहनीय प्रयास है। उम्मीद करना चाहिए की संघ की इस पहल का समाज के उन वर्गों द्वारा जो ज़्यादातर कही सुनी बातो से अपनी राय बनलेते है उनकी समझ बढ़ेगी।  संघ में अधिक पारदर्शिता आएगी और समय के साथ  मूल सिद्धांतो से बिना समझौता किये हुए देश हित  में  अपना अनुपम योगदान देता रहेगा।  और यह प्रयास उन भ्रमों को दूर करने में सहायक सिद्ध होगा जिनका कई दशकों से सामना करना पद रहा है। 

अजय सिंह "एकल"










Saturday, September 15, 2018

*बड़े बावरे हिन्दी के मुहावरे*

हिंदी दिवस पर खास 


         
हिंदी के मुहावरे, बड़े ही बावरे है,
खाने पीने की चीजों से भरे है...
कहीं पर फल है तो कहीं आटा-दालें है,
कहीं पर मिठाई है, कहीं पर मसाले है ,
फलों की ही बात ले लो...
 
 
आम के आम और गुठलियों के भी दाम मिलते हैं,
कभी अंगूर खट्टे हैं,
कभी खरबूजे, खरबूजे को देख कर रंग बदलते हैं,
कहीं दाल में काला है,
तो कहीं किसी की दाल ही नहीं गलती,
 
 
कोई डेड़ चावल की खिचड़ी पकाता है,
तो कोई लोहे के चने चबाता है,
कोई घर बैठा रोटियां तोड़ता है,
कोई दाल भात में मूसरचंद बन जाता है,
मुफलिसी में जब आटा गीला होता है,
तो आटे दाल का भाव मालूम पड़ जाता है,
 
 
सफलता के लिए बेलने पड़ते है कई पापड़,
आटे में नमक तो जाता है चल,
पर गेंहू के साथ, घुन भी पिस जाता है,
अपना हाल तो बेहाल है, ये मुंह और मसूर की दाल है,
 
 
गुड़ खाते हैं और गुलगुले से परहेज करते हैं,
और कभी गुड़ का गोबर कर बैठते हैं,
कभी तिल का ताड़, कभी राई का पहाड़ बनता है,
कभी ऊँट के मुंह में जीरा है,
कभी कोई जले पर नमक छिड़कता है,
किसी के दांत दूध के हैं,
तो कई दूध के धुले हैं,
 
 
कोई जामुन के रंग सी चमड़ी पा के रोई है,
तो किसी की चमड़ी जैसे मैदे की लोई है,
किसी को छटी का दूध याद आ जाता है,
दूध का जला छाछ को भी फूंक फूंक पीता है,
और दूध का दूध और पानी का पानी हो जाता है,
 
 
शादी बूरे के लड्डू हैं, जिसने खाए वो भी पछताए,
और जिसने नहीं खाए, वो भी पछताते हैं,
पर शादी की बात सुन, मन में लड्डू फूटते है,
और शादी के बाद, दोनों हाथों में लड्डू आते हैं,
 
 
कोई जलेबी की तरह सीधा है, कोई टेढ़ी खीर है,
किसी के मुंह में घी शक्कर है, सबकी अपनी अपनी तकदीर है...
कभी कोई चाय-पानी करवाता है,
कोई मख्खन लगाता है
और जब छप्पर फाड़ कर कुछ मिलता है,
तो सभी के मुंह में पानी आता है,
 
भाई साहब अब कुछ भी हो,
घी तो खिचड़ी में ही जाता है,
जितने मुंह है, उतनी बातें हैं,
सब अपनी-अपनी बीन बजाते है,
पर नक्कारखाने में तूती की आवाज कौन सुनता है,
सभी बहरे है, बावरें है
ये सब हिंदी के मुहावरें हैं...
 
ये गज़ब मुहावरे नहीं बुजुर्गों के अनुभवों की खान हैं...
सच पूछो तो हिन्दी भाषा की जान हैं.







*कड़वा सच*

तारीफ किये बिना*
*कोई खुश होता नहीं ।*

*और*

*झूठ बोले बिना*
*किसी की तारीफ होती नहीं ।*