Monday, June 26, 2017

डा0 राजेन्द्र प्रसाद के जीवन के कुछ अंतिम दुखद पीड़ादायी वर्ष

डा0 राजेन्द्र प्रसाद के जीवन के कुछ अंतिम दुखद पीड़ादायी वर्ष

प्रथम राष्ट्रपति डा. राजेन्द्र प्रसाद एक बहुत ही विनम्र, सज्जन पुरुष और विद्वान व्यक्ति थे, संविधान के निर्माण में बाबा साहब आंबेडकर के साथ बहुत ज्यादा समय और सहयोग देते थे,,, नेहरू उन के प्रति दुराग्रह रखते थे

डा.राजेन्द्र प्रसाद की शख्सियत से पंडित नेहरु हमेशा अपने को असुरक्षित महसूस करते रहे। उन्होंने राजेन्द्र बाबू को नीचा दिखाने का कोई अवसर भी हाथ से जाने नहीं दिया। 

हद तो तब हो गई जब 12 वर्षों तक रा्ष्ट्रपति रहने के बाद राजेन्द्र बाबू देश के राष्ट्रपति पद से मुक्त होने के बाद पटना जाकर रहने लगे, तो नेहरु ने उनके लिए वहां पर एक सरकारी आवास तक की व्यवस्था नहीं की, उनकी सेहत का ध्यान नहीं रखा गया। दिल्ली से पटना पहुंचने पर राजेन्द्र बाबू बिहार विद्यापीठ, सदाकत आश्रम के एक सीलन से भरे कमरे में रहने लगे। उनकी तबीयत पहले से खराब रहती थी, पटना जाकर ज्यादा खराब रहने लगी। वे दमा के रोगी थे, इसलिए सीलनभरे कमरे में रहने के बाद उनका दमा ज्यादा बढ़ गया। 

वहां उनसे मिलने के लिए श्री जयप्रकाश नारायण पहुंचे। वे उनकी हालत देखकर हिल गए। उस कमरे को देखकर जिसमें देश के पहले राष्ट्रपति और संविधान सभा के पहले अध्यक्ष डा.राजेन्द्र प्रसाद रहते थे, उनकी आंखें नम हो गईं। उन्होंने उसके बाद उस सीलन भरे कमरे को अपने मित्रों और सहयोगियों से कहकर कामचलाउ रहने लायक करवाया। 

लेकिन, उसी कमरे में रहते हुए राजेन्द्र बाबू की 28 फरवरी,1963 को मौत हो गई। 

क्या आप मानेंगे कि उनकी अंत्येष्टि में पंडित नेहरु ने शिरकत करना तक भी उचित नहीं समझा। वे उस दिन जयपुर में एक अपनी ‘‘तुलादान’’ करवाने जैसे एक मामूली से कार्यक्रम में चले गए। यही नहीं, उन्होंने राजस्थान के तत्कालीन राज्यपाल डा.संपूर्णानंद को राजेन्द्र बाबू की अंत्येष्टि में शामिल होने से रोका। 

नेहरु ने राजेन्द्र बाबू के उतराधिकारी डा. एस. राधाकृष्णन को भी पटना न जाने की सलाह दे दी। लेकिन, डा0 राधाकृष्णन ने नेहरू के परामर्श को नहीं माना और वे राजेन्द्र बाबू के अंतिम संस्कार में भाग लेने पटना पहुंचे। इसी से आप अंदाजा लगा सकते हैं कि नेहरू किस कदर राजेन्द्र प्रसाद से दूरियां बनाकर रखते थे।

इस मार्मिक और सनसनीखेज तथ्य का खुलासा खुद डा.संपूर्णानंद ने किया है। संपूर्णानंद जी ने जब नेहरू को कहा कि वे पटना जाना चाहते हैं, राजेन्द्र बाबू की अंत्येष्टि में भाग लेने के लिए तो उन्होंने (नेहरु) संपूर्णानंद से कहा कि ये कैसे मुमकिन है कि देश का प्रधानमंत्री किसी राज्य में आए और उसका राज्यपाल वहां से गायब हो। इसके बाद डा. संपूर्णानंद ने अपना पटना जाने का कार्यक्रम रद्द किया। हालांकि, उनके मन में हमेशा यह मलाल रहा कि वे राजेन्द्र बाबू के अंतिम दर्शन नहीं कर सके। वे राजेन्द्र बाबू का बहुत सम्मान करते थे। 

डॉक्टर सम्पूर्णानंद ने राजेन्द बाबू के सहयोगी प्रमोद पारिजात शास्त्री को लिखे गए पत्र में अपनी व्यथा व्यक्त करते हुए लिखा था कि ‘‘घोर आश्चर्य हुआ कि बिहार के जो प्रमुख लोग दिल्ली में थे उनमें से भी कोई पटना नहीं गया, (किसके डर से?)

ये बात भी अब सबको मालूम है कि पटना में डा. राजेन्द्र बाबू को उत्तम क्या मामूली स्वास्थ्य सुविधाएं तक नहीं मिलीं। उनके साथ बेहद बेरुखी वाला व्यवहार होता रहा, मानो सबकुछ केन्द्र के निर्देश पर हो रहा हो। उन्हें कफ की खासी शिकायत रहती थी। उनकी कफ की शिकायत को दूर करने के लिए पटना मेडिकल कालेज में एक मशीन थी कफ निकालने वाली। उसे भी केन्द्र के निर्देश पर मुख्यमंत्री ने राजेन्द्र बाबू के कमरे से निकालकर वापस पटना मेडिकल काॅलेज भेज दिया गया। जिस दिन कफ निकालने की मशीन वापस मंगाई गई उसके दो दिन बाद ही राजेन्द बाबू खाँसते-खाँसते चल बसे, यानी राजेन्द्र बाबू को मारने का पूरा और पुख्ता इंतजाम किया गया था. कफ निकालने वाली मशीन वापस लेने की बात तो अखबारों में भी आ गई हैं.

दरअसल नेहरु अपने को राजेन्द्र प्रसाद के समक्ष बहुत बौना महसूस करते थे। उनमें इस कारण से बड़ी हीन भावना पैदा हो गई थी और वे उनसे छतीस का आंकड़ा रखते थे। वे डा. राजेन्द्र प्रसाद को किसी न किसी तरह से आदेश देने की मुद्रा में रहते थे, जिसे राजेन्द्र बाबू मुस्कुराकर टाल दिया करते थे। 

नेहरू ने राजेंद्र प्रसाद से सोमनाथ मंदिर का 1951 में उदघाटन न करने का आग्रह किया था। उनका तर्क था कि धर्मनिरपेक्ष राष्ट्र के प्रमुख को मंदिर के उदघाटन से बचना चाहिए। हालांकि, नेहरू के आग्रह को न मानते हुए डा. राजेंद्र प्रसाद ने सोमनाथ मंदिर में शिव मूर्ति की स्थापना की. डा. राजेन्द्र प्रसाद मानते थे कि ‘‘धर्मनिरपेक्षता का अर्थ अपने संस्कारों से दूर होना या धर्मविरोधी होना नहीं हो सकता।’’ सोमनाथ मंदिर के उदघाटन के वक्त डा. राजेंद्र प्रसाद ने कहा था कि भारत एक धर्मनिरपेक्ष राष्ट्र है, लेकिन नास्तिक राष्ट्र नहीं है. डा. राजेंद्र प्रसाद मानते थे कि उन्हें सभी धर्मों के प्रति बराबर और सार्वजनिक सम्मान प्रदर्शित करना चाहिए। एक तरफ तो नेहरु डा. राजेन्द्र प्रसाद को सोमनाथ मंदिर में जाने से मना करते रहे लेकिन, दूसरी तरफ वे स्वयं 1956 के इलाहाबाद में हुए कुंभ मेले में डुबकी लगाने चले गए. बताते चलें कि नेहरु के वहां अचानक पहुँच जाने से कुंभ में अव्यवस्था फैली और भारी भगदड़ में करीब 800 लोग मारे गए।
हिन्दू कोड बिल पर भी राजेन्द्र प्रसाद, नेहरु से अलग राय रखते थे. जब पंडित जवाहर लाल नेहरू हिन्दुओं के पारिवारिक जीवन को व्यवस्थित करने के लिए हिंदू कोड बिल लाने की कोशिश में थे, तब डा.राजेंद्र प्रसाद इसका खुलकर विरोध कर रहे थे। डा. राजेंद्र प्रसाद का कहना था कि लोगों के जीवन और संस्कृति को प्रभावित करने वाले कानून न बनाये जायें। दरअसल जवाहर लाल नेहरू चाहते ही नहीं थे कि डा. राजेंद्र प्रसाद देश के राष्ट्रपति बनें। उन्हें राष्ट्रपति बनने से रोकने के लिए उन्होंने ‘‘झूठ’’ तक का सहारा लिया था। नेहरु ने 10 सितंबर, 1949 को डा. राजेंद्र प्रसाद को पत्र लिखकर कहा कि उन्होंने (नेहरू) और सरदार पटेल ने फैसला किया है कि सी.राजगोपालाचारी को भारत का पहला राष्ट्रपति बनाना सबसे बेहतर होंगा। नेहरू ने जिस तरह से यह पत्र लिखा था, उससे डा.राजेंद्र प्रसाद को घोर कष्ट हुआ और उन्होंने पत्र की एक प्रति सरदार पटेल को भिजवाई। पटेल उस वक्त बम्बई में थे। कहते हैं कि सरदार पटेल उस पत्र को पढ़ कर सन्न थे, क्योंकि, उनकी इस बारे में नेहरू से कोई चर्चा नहीं हुई थी कि राजाजी (राजगोपालाचारी) या डा. राजेंद्र प्रसाद में से किसे राष्ट्रपति बनाया जाना चाहिए। न ही उन्होंने नेहरू के साथ मिलकर यह तय किया था कि राजाजी राष्ट्रपति पद के लिए उनकी पसंद के उम्मीदवार होंगे। यह बात उन्होंने राजेन्द्र बाबू को बताई। इसके बाद डा. राजेंद्र प्रसाद ने 11 सितंबर,1949 को नेहरू को पत्र लिखा, जिसमें उन्होंने स्पष्ट शब्दों में कहा था कि ‘‘पार्टी में उनकी (डा0 राजेन्द प्रसाद की) जो स्थिति रही है, उसे देखते हुए वे बेहतर व्यवहार के पात्र हैं। नेहरू को जब यह पत्र मिला तो उन्हें लगा कि उनका झूठ पकड़ा गया। अपनी फजीहत कराने के बदले उन्होंने अपनी गलती स्वीकार करने का निर्णय लिया।
नेहरू यह भी नहीं चाहते थे कि हालात उनके नियंत्रण से बाहर हों और इसलिए ऐसा बताते हैं कि उन्होंने इस संबंध में रातभर जाग कर डा. राजेन्द्र प्रसाद को जवाब लिखा। डा. राजेन्द्र बाबू, प्रधानमंत्री जवाहर लाल नेहरू के विरोध के बावजूद दो कार्यकाल के लिए राष्ट्रपति चुने गए थे। बेशक, नेहरू सी राजगोपालाचारी को देश का पहला राष्ट्रपति बनाना चाहते थे, लेकिन सरदार पटेल और कांग्रेस के तमाम वरिष्ठ नेताओं की राय डा. राजेंद्र प्रसाद के हक में थी। आखिर नेहरू को कांग्रेस नेताओं सर्वानुमति की बात माननी ही पड़ी और राष्ट्रपति के तौर पर डा. राजेन्द्र प्रसाद को ही अपना समर्थन देना पड़ा।

जवाहर लाल नेहरू और डा. राजेंद्र प्रसाद में वैचारिक और व्यावहारिक मतभेद बराबर बने रहे थे। ये मतभेद शुरू से ही थे, लेकिन 1950 से 1962 तक राजेन्द्र बाबू के राष्ट्रपति रहने के दौरान ज्यादा मुखर और सार्वजनिक हो गए। नेहरु पश्चिमी सभ्यता के कायल थे जबकि राजेंद्र प्रसाद भारतीय सभ्यता देश के एकता का मूल तत्व मानते थे। राजेन्द्र बाबू को देश के गांवों में जाना पसंद था, वहीं नेहरु लन्दन और पेरिस में चले जाते थे। पेरिस के धुले कपड़े तक पहनते थे। 

सरदार पटेल भी भारतीय सभ्यता के पूर्णतया पक्षधर थे। इसी कारण सरदार पटेल और डा. राजेंद्र प्रसाद में खासी घनिष्ठता थी। सोमनाथ मंदिर मुद्दे पर डा. राजेंद्र प्रसाद और सरदार पटेल ने एक जुट होकर कहा की यह भारतीय अस्मिता का केंद्र है इसका निर्माण होना ही चाहिए। लंबे समय तक देश के राष्ट्रपति रहने के बाद भी राजेन्द्र बाबू ने कभी भी अपने किसी परिवार के सदस्य को न पोषित किया और न लाभान्वित किया।

 हालांकि नेहरु इसके ठीक विपरीत थे। उन्होंने अपनी पुत्री इंदिरा गांधी और बहन विजयालक्ष्मी पंडित को सत्ता की रेवडि़यां खुलकर बांटीं। सारे दूर-दराज के रिश्तेदारों को राजदूत, गवर्नर, जज बनाया। राजेन्द्र प्रसाद नेहरू की तिब्बत नीति और हिन्दी-चीनी भाई-भाई की नीति से असहमत थे। नेहरु की चीन नीति के कारण भारत 1962 की जंग में करारी शिकस्त झेलनी पड़ी। 

संक्षेप में कहने का तात्पर्य यह है कि ऐसे थे हमारे-आपके पंडित जवाहरलाल नेहरू... स्वाभाविक है कि उनकी पीढियाँ और पुरखे भी ऐसे ही षडयंत्रकारी, तानाशाही किस्म की मानसिकता के और हिन्दू द्वेषी हैं. 
 
आलेख सोशल मीडिया से लिया गया है. 
 

Saturday, June 24, 2017

मीरा ने फिर पिया जहर

दोस्तों ,
अगर जीत पक्की हो तो साथ  वाले अनगिनत होते है। क्योंकि जीत के बाद जीते हुये आदमी से कुछ लाभ न भी हो तो कम से  कम इज्जत तो बढ़ती ही  है। लेकिन जब हार पक्की हो तो वोह कौन लोग है जो आपका साथ देंगे ?  अनुमान लगाना मुश्किल नहीं है, यह वह लोग है जो आपके ऊपर दांव लगाएंगे और दांव लगाने का श्रेय लेकर
जिसके ऊपर दांव लगाएंगे उसे तो छोड़ देंगे जहर पीने के लिए और खुद उसका  चाहे व्यापारिक लाभ हो या सामाजिक लाभ उठाने में न तो गलती करेंगे न देर। ऐसा नहीं है की यह पहली बार हो रहा है।

 महाभारत के युद्ध में दुर्योधन की हार निश्चित जानते हुए भी कर्ण ने उसका साथ नहीं छोड़ा और मृत्युपर्यन्त युद्ध करता रहा। कर्ण  ने अपने वचन को निभाने के लिए अपना सबकुछ त्याग कर दोस्ती की मिसाल कायम की। दूसरी ओर दुर्योधन ने जितने भी एहसान कर्ण  पर किये थे वह सब  चुकता करवा कर ही दम  लिया। 



वैसे ही राष्ट्रपति के चुनाव में राम नाथ कोविंद की जीत सुनिश्चित है जानकार भी मीरा कुमार ने कांग्रेस और अन्य दलों के संगठन यू पी ये के आग्रह पर राष्ट्रपति का चुनाव  लड़ने का आग्रह स्वीकार कर अपने ऊपर कांग्रेस पार्टी और गाँधी परिवार के द्वारा किये गए सभी ऐहसानो का बदला चुका  दिया है। कांग्रेस को
पता है की अगले कुछ सालो सत्ता में वापसी मुश्किल है और जब वापसी होगी तब तक सत्ता में नए दावेदार भी आ चुके होंगे। इसलिए इस समय तो ज्यादा ज्यादा यही हो सकता है की जिन लोगो पर एहसान है उनका हिसाब कर लिया जाये। लेकिन तारीफ करनी होगी मीरा कुमार की जिन्होंने सब जानते समझते एक बार फिर जहर पी लिया ,पिछले जन्म  में गोविन्द के लिए और इस जन्म  में कोविंद के लिए।



                                                                             अंत में 
असली दोस्‍त वे नहीं होते जो कामयाबी में आपके साथ होते हैं, 
बल्कि वे होते हैं, जो मुश्‍किल में आपके साथ  होते हैं।

अजय सिंह "जे एस के "