Saturday, December 31, 2016

महात्मा की सच्चाई

एक संस्मरण रजनीश ओशो के प्रवचन से।महात्मा गांधी और ओशो के सम्बन्ध (ओशो की जुबानी-1)

मैं अभी भी उस रेलगाड़ी को देख सकता हूं जिसमें गांधी सफर कर रहे थे। वे सदा तीसरे

दर्जे, थर्ड क्लास में सफर करते थे .

परंतु उनका यह थर्ड क्लास फ़र्स्ट क्लास,प्रथम श्रेणी से भी अधिक अच्छा था। साठ सीटों के डिब्बे में वे  उनकी पत्नी और उनका सैक्रेटरी—केवल यह तीन लोग थे। सारा डिब्बा आरक्षित था।और वह कोई साधारण प्रथम श्रेणी का डिब्बा नहीं था क्योंकि ऐसा डिब्बा तो दुबारा मैंने कभी देखा ही नहीं। वह तो प्रथम श्रेणी का डिब्बा ही रहा होगा। और सिर्फ प्रथम श्रेणी का ही नहीं बल्कि विशेष प्रथम श्रेणी का, सिर्फ उस पर ‘’तृतीय श्रेणी’’ लिख दिया

गया था और तृतीय श्रेणी बन गया था। और इस प्रकार महात्मा गांधी के सिद्धांत और उनके दर्शन की रक्षा हो गई थी।

उस समय मैं केवल दस साल का था। मेरी मां यानी मेरी नानी ने मुझे तीन रूपये देते हुए कहा कि स्टेशन बहुत दूर है और तुम भोजन के समय तक शायद वापस घर न पहुच सको। और इन गाड़ियों का कोई भरोसा नहीं है। बारह-तेरह घंटे देर से आना तो इनके लिए आम बात है। इसलिए ये तीन रूपये अपने पास रख लो। भारत में उन दिनों तीन रुपयों को तो एक अच्छा खासा खजाना माना जाता था। तीन रुपयों में तो एक आदमी तीन महीने तक अच्छी तरह से रह सकता था।

नानी ने मेरे लिए एक बहुत सुंदर कुर्ता बनवाया था। उनको मालूम था कि मुझे लंबी पतलून अच्छी नहीं लगती । ज्यादा से ज्यादा मैं कुरता-पायजामा पहन लेता था। कुर्ता मुझे बहुत प्रिय था, और पायजामा तो धीरे-धीरे गायब हो गया केवल लंबा कुर्ता ही बचा।

लोगों ने शरीर को दो हिस्सों में बाट रखा है। एक ऊपर का हिस्सा और दूसरा नीचे का हिस्सा। और इन दोनों के लिए कपड़े भी अलग- अलग तरह के बनाए है। शरीर के ऊपरी हिस्से के लिए तो सुंदर-सुंदर कपडे बनाए है और निचले शरीर को तो ढाँक लेने का प्रयास किया गया है बस।

नानी ने मेरे लिए बहुत सुंदर कुर्ता बनवाया था। उन दिनों बहुत गर्मी थी। मध्य-भारत के उस अंचल में बहुत       अधिक गर्मी पड़ती है। दिन-रात लू चलती रहती है, उस के थपेड़ों से मुंह और नाक को बहुत परेशानी होती। बस केवल आधी रात को लोगों के कुछ राहत मिलती। 

उस समय सोने की मोहरें गायब हो गई थीं और चाँदी के रुपयों का प्रचलन था। अब उस मलमल के कुरते की जेब के लिए चाँदी के तीन रूपये बहुत भारी थे—जेब लटक रही थी। ऐसा मैं क्यों कह रहा हूं, क्योंकि इसको जाने बिना आप लोग उस बात को समझ नहीं सकोगे जो मैं कहने जा रहा हूं।

गाड़ी हमेशा की तरह तेरह घंटे लेट आई। बाकीसभी लोग चले गए थे। सिवाय मेरे। तूम तो जानते है कि मैं कितना जिद्दी हूं। स्टेशन मास्टर ने भी मुझसे कहा: बेटा तुम्हारा तो कोई जवाब नहीं है। सब लोग चले गए हैं किंतु

तुम तो शायद रात को भी यहीं पर ठहरने के लिए तैयार हो। और अभी भी गाड़ी के आने को कुछ पता नहीं है। और तुम सुबह चार बजे से उसका इंतजार कर रहे हो।

स्टेशन पर चार बजे पहुंचने के लिए मुझे अपने घर से आधीरात को ही चलना पडा था। फिर भी मुझे अपने उन तीन रुपयों को खर्च ने की जरूरत नहीं पड़ी थी क्योंकि स्टेशन पर जितने लोग थेसब कुछ न कुछ लाए थे और वे सब इस छोटे लड़के की देखभाल कर रहे थे। वे मुझे फल, मिठाइयोंऔर मेवा खिला रहे थे। सो मुझे भूख लगने का कोई सवाल ही नहीं था। आखिर जब गाड़ी आई तो बस एक दस बरस का लड़का स्टेशन मास्टर के साथ वहां खड़ा था।

स्टेशन मास्टर ने महात्मा गांधी से मुझे मिलवाते हुए कहा: इसे केवल छोटा सा लड़का ही मत समझिए। दिन भर मैंने इसे देखा है और क विषयों पर इससे चर्चा की है, क्योंकि और कोई काम तो था नहीं। बहुत लोग आए थे और

बहुत पहले चले गए, किंतु यह लड़का कहीं गया नहीं। सुबह से आपकी गाड़ी का इंतजार कररहा है। मैं इसका आदर करता हूं, क्योंकि मुझे पता है कि अगर गाड़ी न आती तो यह यहां से जानेवाला नहीं था। यह यहीं पर रहता। आस्तित्व के अंत तक यह यहीं रहता। अगर ट्रेन न आती तो यह कभी नहीं जाता।

महात्मा गांधी बूढे आदमी थे। उन्होंने मुझे अपने पास बुलाया और मुझे देखा। परंतु वे मेरी और देखने के बजाए मेरी जेब की और देख रहे थे।बस उनकी इसी बात ने मुझे उनसे हमेशा के लिए विरक्त कर दिया। उन्होंने कहा: यह क्या है?

, मैंने कहा: तीन रूपये।

इस पर तुरंत उन्होंने मुझसे कहा, इनको दान कर दो। उनके पास एक दान पेटी होती थी,जिसमें सूराख बना हुआ था। दान में दिए जाने वाले पैसों को उस सूराख से पेटी के भीतर डालदिया जाता था। चाबी तो उनके पास रहती थी। बाद में वे उसे खोल कर उसमें से पैसे निकाल लेते थे।मैंने कहा: अगर आप में हिम्मत है तो आप इन्हें ले ले।

लीजिए,जेब भी यहां है रूपये भी यहां है, लेकिन क्या मैं आप से पूछ सकता हूं कि ये रूपये आप किस लिए इक्कठा कर रहे है। उन्होंने कहा: गरीबों के लिए। मैंने कहा: तब यह बिलकुल ठीक है। तब मैंने स्वयं उन तीन रुपयों को उस पेटी में डाल दिया, लेकिन आश्चर्य तो उन्हें होना था क्योंकि  जब मै वहां से चला तो उस पेटी को उठा कर चल पडा।

उन्होंने कहा: अरे, यह तुम क्या कर रहे हो। यह तो गरीबों के लिए हे। मैंने उत्तर दिया: हां, मैंने सुन लिया है, आपको फिर से कहने की जरूरत नहीं है। मैं भी तो गरीबों के लिए ही ले जा रहा हूं। मेरे गांव मेंबहुत से गरीब है। अब मेहरबानी करके मुझे इसकी चाबी दे दीजिए, नहीं तो इसको खोलने के लिए मुझे किसी चोर को बुलाना पड़ेगा। क्योंकि चोर ही बंद ताले को खोलने की कला जानते है।

उन्होंने कहा: यह अजीब बात है….उन्होंने अपने सैक्रेटरी की और देखा। वह गूंगा बना था जैसे की सैक्रेटरी होते है। अन्यथा वे सैक्रेटरी ही क्यों बने? उन्होंने कस्तूरबा, अपनी पत्नी की और देखा। कस्तूरबा ने उनसे कहा: अच्छा हुआ, अब आपको अपने बराबरी का व्यक्ति मिला। आप सबको बेवकूफ बनाते हो, अब यह लड़काआपका बक्सा ही उठा कर ले जा रहा है। अच्छा हुआ। बहुत अच्छा हुआ,मैं इस बक्से कोदेख-देख कर तंग आ गई हूं।

परंतु मुझे उन पर दया आ गई और मैंने उस पेटी को वहीं पर छोड़ते हुए कहा: आप सबसे गरीब मालूम

होते है। आपके सैक्रेटरी को तो कोई अक्ल नहीं है। न आपकी पत्नी का आपसे कोई प्रेम दिखाई देता है। मैं यह बक्सा नहीं ले जा सकता,इसे आप अपने पास ही रखिए। परंतु इतना याद रखिए कि मैं तो आया था एक महात्मा से मिलने परंतु उस छोटी सी उम्र में भी महात्मा गांधी मुझे व्यवसायी ही लगे।

व्हाटस अप पर प्राप्त 

अजय सिंह "जे एस के "

मैखाने मे आऊंगा मगर

 

मैखाने मे आऊंगा मगर... 

पिऊंगा नही साकी... 

ये शराब मेरा गम मिटाने की औकात नही रखती......


"खामोश बैठें तो लोग कहते हैं उदासी अच्छी नहीं,

 ज़रा सा हँस लें तो मुस्कुराने की वजह पूछ लेते हैं" ! 


हद-ए-शहर से निकली तो गाँव गाँव चली। 

कुछ यादें मेरे संग पांव पांव चली। 

सफ़र जो धूप का किया तो तजुर्बा हुआ। 

वो जिंदगी ही क्या जो छाँव छाँव चली।।.... 


तू होश में थी फिर भी हमें पहचान न पायी; 

एक हम है कि पी कर भी तेरा नाम लेते रहे! 


हजार जवाबों से अच्छी है खामोशी, 

ना जाने कितने सवालों की आबरू रखती है ! 


"सूरज ढला तो कद से ऊँचे हो गए साये, 

कभी पैरों से रौंदी थी, यहीं परछाइयां हमने.. 


काग़ज़ की कश्ती थी पानी का किनारा था। 

खेलने की मस्ती थी ये दिल अवारा था। 

कहाँ आ गए इस समझदारी के दलदल में। 

वो नादान बचपन भी कितना प्यारा था ...! 


जमीन छुपाने के लिए गगन होता है.. 

दिल छुपाने के लिए बदन होता है.... 

शायद मरने के बाद भी छुपाये जाते है ग़म....

इस लिए हर लाश पे कफ़न होता है 


 मेरे लफ़्ज़ों से न कर मेरे क़िरदार का फ़ैसला ll 

तेरा वज़ूद मिट जायेगा मेरी हकीक़त ढूंढ़ते ढूंढ़ते l


कब्र की मिट्टी हाथ में लिए सोच रहा हूं, 

लोग मरते हैं तो गु़रूर कहाँ जाता है. 


किनारे पर तैरने वाली लाश को देखकर ये समझ आया… 

बोझ शरीर का नही साँसों का था..!! 


 यह जो मेरी क़ब्र पर रोते हैं, 

अभी ऊठ जाऊँ, तो ये जीने न दे..!! 

 

मेरे पीठ पर जो जख्म़ है, वो अपनों की निशानी हैं, 

वरना सीना तो आज भी दुश्मनो के इंतजार मे बैठा है.. 


 जरुरत तोड देती है इन्सान के घमंड को.. 

न होती मजबूरी तो हर बंदा खुदा होता.!!! 


 जिसको गलत तस्वीर दिखाई, 

उसको ही बस खुश रख पाया.

 जिसके सामने आईना रक्खा, 

हर शख्स वो मुझसे रूठ गया..!! 


इस जमाने मे वफा की तलाश ना कर 

गाफि़ल वो वक्त और था.. 

जब मकान कच्चे और लोग सच्चे होते थे..!!! 

व्हाटअप से प्राप्त 

अजय सिंह "जे एस के "

बैसवारा के श्री राव रामबख्श सिंह का बलिदान


 मित्रों,

श्रीराम की जन्मभूमि अयोध्या और लक्ष्मणपुरी (लखनऊ) का निकटवर्ती क्षेत्र सदा से अवध कहलाता है। इसी अवध में उन्नाव जनपद का कुछ क्षेत्र बैसवारा कहा जाता है। इसी बैसवारा की वीरभूमि में राव रामबख्श सिंह का जन्म हुआ, जिन्होंने मातृभूमि को अंग्रेजों के चंगुल से मुक्त कराने के लिए अन्तिम दम तक संघर्ष किया और फिर हँसते हुए फाँसी का फन्दा चूम लिया।

राव रामबख्श सिंह बैसवारा के संस्थापक राजा त्रिलोक चन्द्र की 16वीं पीढ़ी में जन्मे थे। रामबख्श सिंह ने 1840 में बैसवारा क्षेत्र की ही एक रियासत डौडियाखेड़ा का राज्य सँभाला। यह वह समय था, जब अंग्रेज छल-बल से अपने साम्राज्य का विस्तार कर रहे थे। इसी के साथ स्वाधीनता संग्राम के लिए रानी लक्ष्मीबाई, बहादुरशाह जफर, नाना साहब, तात्या टोपे आदि के नेतृत्व में लोग संगठित भी हो रहे थे। राव साहब भी इस अभियान में जुड़ गये।

31 मई, 1857 को एक साथ अंग्रेजों के विरुद्ध सैनिक छावनियों में हल्ला बोलना था; पर दुर्भाग्यवश समय से पहले ही विस्फोट हो गया, जिससे अंग्रेज सतर्क हो गये। कानपुर पर नानासाहब के अधिकार के बाद वहाँ से भागे 13 अंग्रेज बक्सर में गंगा के किनारे स्थित एक शिव मन्दिर में छिप गये। 

वहाँ के ठाकुर यदुनाथ सिंह ने अंग्रेजों से कहा कि वे बाहर आ जायें, तो उन्हें सुरक्षा दी जाएगी; पर अंग्रेज छल से बाज नहीं आये। उन्होंने गोली चला दी, जिससे यदुनाथ सिंह वहीं मारे गये। क्रोधित होकर लोगों ने मन्दिर को सूखी घास से ढककर आग लगा दी। इसमें दस अंग्रेज जल मरे; पर तीन गंगा में कूद गये और किसी तरह गहरौली, मौरावाँ होते हुए लखनऊ आ गये।*

लखनऊ में अंग्रेज अधिकारियों को जब यह वृत्तान्त पता लगा, तो उन्होंने मई 1858 में सर होप ग्राण्ट के नेतृत्व में एक बड़ी फौज बैसवारा के दमन के लिए भेज दी। इस फौज ने पुरवा, पश्चिम गाँव, निहस्था, बिहार और सेमरी को रौंदते हुए दिसम्बर 1858 में राव रामबख्श सिंह के डौडियाखेड़ा दुर्ग को घेर लिया। राव साहब ने सम्पूर्ण क्षमता के साथ युद्ध किया; पर अंग्रेजों की सामरिक शक्ति अधिक होने के कारण उन्हें पीछे हटना पड़ा।

इसके बाद भी राव साहब गुरिल्ला पद्धति से अंग्रेजों को छकाते रहे; पर उनके कुछ परिचितों ने अंग्रेजों द्वारा दिये गये चाँदी के टुकड़ों के बदले अपनी देशनिष्ठा गिरवी रख दी। इनमें एक था उनका नौकर चन्दी केवट। उसकी सूचना पर अंग्रेजों ने राव साहब को काशी में गिरफ्तार कर लिया।*

रायबरेली के तत्कालीन जज डब्ल्यू. ग्लाइन के सामने न्याय का नाटक खेला गया। मौरावाँ के देशद्रोही चन्दनलाल खत्री व दिग्विजय सिंह की गवाही पर राव साहब को मृत्युदंड दिया गया। अंग्रेज अधिकारी बैसवारा तथा सम्पूर्ण अवध में अपना आतंक फैलाना चाहते थे। इसलिए उन्होंने बक्सर के उसी मन्दिर में स्थित वटवृक्ष पर 28 दिसम्बर, 1861 को राव रामबख्श सिंह को फाँसी दी, जहाँ दस अंग्रेजों को जलाया गया था। राव साहब डौडियाखेड़ा के कामेश्वर महादेव तथा बक्सर की माँ चन्द्रिका देवी के उपासक थे। इन दोनों का ही प्रताप था कि फाँसी की रस्सी दो बार टूट गयी। 

राव रामबख्श सिंह भले ही चले गये; पर डौडियाखेड़ा दुर्ग एक तीर्थ बन गया, जहाँ भरने वाले मेले में अवध के लोकगायक आज भी गाते हैं*  - 

अवध मा राव भये मरदाना।
 
अजय सिंह "जे एस के "