Friday, January 25, 2013

मैं भी मर्द हूँ

दोस्तों,
विवादस्पद बयान और बडबोला पन नेता के बड़े होने की निशानी है।अखबार और अन्य माध्यमो से समाचार में बने रहने का तरीका भी। तभी तो नितिन गडकरी जो अभी -अभी खुद  बेआबरू होकर और अपने चाहने वाले  बहुतो को बेआबरू होते देख कर अध्यक्ष पद से रुखसत हुएँ हैं और भाजपा को और ज्यादा शर्मिंदगी से बचाने के लिए धन्यवाद के पात्र है, ने 24 घन्टे से भी कम समय में यह बता दिया की वह भी मर्द है इसलिए जब एन डी ऐ की सरकार आयेगी तो उन इन्कम टैक्स अफसरों को कोई बचा नहीं पायेगा जो उन्हें तंग कर रहे है। अब गडकरी कोई मामूली आदमी तो है नहीं आखिर एक राष्ट्रीय पार्टी के पूर्व  अध्यक्ष  है इसलिए उन्हें ऐसे बयान देने से कोई रोक नहीं सकता और अब तो वह उन मर्यादाओं  को भी लाँघ सकते है जो पद पर रहते संभव न थी।लेकिन अपनी मर्दानगी का बखान करने में उन्होंने  तीन महीने यानी  अक्टूबर के महीने से अबतक का समय ख़राब क्यों किया यह आम आदमी और पार्टी कार्यकार्ताओ की समझ के बाहर है।  अगर उसी समय पद से इस्तीफा   देकर ताल ठोकते तो लोग वाकई मर्द समझते और फिर उन्हें इसकी घोषणा नहीं करनी पड़ती। उनकी और पार्टी की इज्जत बढती सो अलग।

लेकिन देश में गडकरी अकेले मर्द नहीं है। इस देश का गृह मंत्री भी मर्द है। तभी तो पाकिस्तानियो द्वारा भारतीय सैनिको के सर काटने पर कोई प्रतिक्रिया व्यक्त नहीं करता। हाफिज सईद को सईद जी कह कर संसद में बयान देता  है।दिल्ली रेप कांड जिससे पूरा देश आंदोलित हो गया उस पर सात दिनों तक चुप्पी साधे रहता है।लेकिन  मर्दानगी का  सबूत देने और  अपनी मालकिन को खुश रखने के लिए देश भक्तो के संगठन आर एस एस को देश द्रोही संगठन करार देता  है।उसी क्रम में देश का गृह सचिव अपने मालिक यानी मंत्री जी को खुश करने के लिए कहते है की उनके पास सबुत भी है लेकिन कोई कार्यवाही  क्यों नहीं कर रहे है यह बताने की हिम्मत इन मर्दों में नहीं है।  भगवा जिसने  देश में शिवाजी महराज जैसे  कितने ही देश भक्तो को बलिदान होने के लिए प्रेरित किया है, को आतंकवाद का प्रतीक बताने में मर्दानगी महसूस कर रहे है। अब इनसे कोई यह पूछे की राहुल के पर नाना (राजीव के नाना) जवाहर लाल जी ने  इसी  संगठन को क्यों  देशभक्त संगठन ही करार नहीं दिया बल्कि 1963 की गणतन्त्र  दिवस परेड में भागीदारी के लिए बुलाकर सम्मान भी किया था।लेकिन इन मर्दों का पढने लिखने से तो कोई सम्बन्ध है नहीं बस तलवे चाटने की आदत ने पद और प्रतिष्ठा दिल दी है तो उसीको बाकी जिन्दगी  में हथियार बनाये रखने की कोशिश जारी है। फिर देश का नफा हो या नुकसान हमें तो बस अपने वोटो से है काम।

राहुल की दादी श्रीमती गाँधी ने भी  1971 पाकिस्तान युद्ध में  संघ को उस  के द्वारा युद्ध के समय देश सेवा के  किये हुए कार्यो के लिए बधाई दी थी . उनका भाषण संसद के दस्तावेजो में दर्ज है और साथ ही अटल जी का वह बयान  भी जिसमे उन्होंने इंद्रा गाँधी की तुलना माँ दुर्गा से की थी। इस लिहाज से तो नेहरु और इंद्रा संघ के आतंक वाद का समर्थन करते हुए माने जाने चाहिए और इस  से जो नतीजा निकलेगा वह यह है की कांग्रेसी कई पीढियो से  आतंकवादी संगठन अर्थात संघ का समर्थन समय समय पर करते रहे है  और राहुल उसी खानदान के कुलदीपक है   तो क्या वह आतंकी समर्थक है , इस सवाल का जवाब यदि आपके (शिंदे के) पास न हो तो कांग्रेस पार्टी के सबसे बड़े मर्द दिग्विजय सिंह  से पूछ लीजिये जिनकी घिघ्घी ओसामा के मर जाने और दफ़न होने की खबर आने  के बाद भी बहुत दिनों तक बंधी रही और उसको ओसामा जी कह कर बुलाते रहे। लेकिन देश भक्तो पर किसी भी तरह का आरोप लगा कर मर्दानगी दिखाने में नहीं चूकते ।

अजय सिंह "एकल"


Saturday, January 19, 2013

लोक तंत्र को दे आधार करे चुनाव सुधार

दोस्तों,
आदमी की जिन्दगी में पाँच  साल का जो महत्व है वही महत्व देश की जिन्दगी में सौ साल का होता है।हमारे देश में पंच वर्षीय योजना की शुरुवात लोक सभा एवं विधान सभाओ की पांच साल से सह सम्बद्ध है।अर्थात पांच वर्ष की योजना केंद्र सरकार द्वारा पांच साल की लोकसभा के  माध्यम से कार्यान्वन  किये जाने की संकल्पना है। बस यहीं चूक हो गयी। एक सरकार ने अपनी सुविधा के हिसाब से पांच हिसाब की योजना बनाई और उसको लागू  करवा दिया।और उसके बाद आने वाली सरकार ने अपने नेता और पार्टी की इच्छा अनुसार कुछ पुरानी नीतियो को लागू रखा और जो सुविधा जनक नहीं लगी उन्हें बदल दिया।ऐसा करने पर देश की दिशा में क्या परिवर्तन होगा,लगे हुए कितने पैसे ख़राब हो जायंगे,जनता के ऊपर इसका परिणाम क्या होगा इसकी चिंता करने का समय और इच्छा दोनों  शक्ति की कमी हमारे नेताओ में रही है। जिसका नतीजा देश दिशा हीन होकर कहाँ जा रहा है इसकी जवाब देही भी शायद ही किसी की है। ऐसा कब तक ऐसे  ही चलने दिया जाये ?क्या कुछ किया जा सकता है।आइए इस पर विचार करे।देश गणतंत्र की 63वी जयन्ती  मनाने  को तैआर है,अत:इस पर विचार करना आवशयक है ताकि हम आने वाली पीढ़ी के लिये जो भारत बनाए उस पर उसे गर्व हो, ताकि  वह पढ़ लिख कर किसी तरह अच्छी नौकरी पाकर या विदेश में जा कर बसने का लक्ष्य न बनाने के बजाए देश में रहने और इसकी सेवा करने में गर्व महसूस करे। हमारे इस विषय में सुझाव है :
  1. देश की अगले सौ सालो की जरूरतों का आंकलन किया जाये और उसको 50,25 और 5 वर्षो में प्राप्त किये जाने योग्य भागो में बाँट कर लागू करने की योजना बनायीं जाये।
  2. देश की योजनाओ को दो हिस्सों में बाटा  जाये ,एक वह जो नेताओ और  पार्टी हितो के ऊपर देश हित में हो और नेताओ अथवा पार्टी के आने -जाने से उन नीतिओ के प्रभावी कार्यान्वन प्रभावित न हो। जैसे देश की शिक्षा नीत क्या होगी, विदेश नीत अथवा रक्षा नीति क्या होगी अथवा बुनियादी ढांचे को बनाने की नीति क्या हो  यह  पार्टी अथवा नेताओ से प्रभावित न हो और यह अपने दीर्घ कालीन आवश्यकताओ के अनुसार  चले ताकि एक निश्चित समय में हमारे देश की दीर्घ कालीन अवश्यक्ताये पूर्ण होना निश्चित हो जाये।
  3. बची हुए क्षेत्रो की  नीतिया पांच  वर्ष की आवश्यकताओ के हिसाब से बनाई जाये जिसको चुनी हुई सरकार अपनी नीतिओ के हिसाब से बना  कर लागू कर सके।
  4. सरकार के द्वारा वस्तुओं  के दाम बढ़ाये जाने  अथवा अन्य किसी प्रकार भी परवर्तित किये जाने की मियाद एक साल में एक बार ही हो। ताकि एक बार नीति निर्धारण हो जाने के बाद आम आदमी और देश का व्यापारी उन नियमो  के हिसाब से अपनी योजना बना सके और जीवन यापन की व्यवस्था कर सके। साल में कई बार  बीच -बीच में महंगाई बढ़ जाने से आम आदमी की कमाई अथवा वेतन  वृद्धी  नहीं होती अत: उसके लिए जीवन दुश्वार हो जाता है। इसलिए बार-बार वृद्धि से बचा जाना चाहिए।किसी आपात जनक स्थिति में संसद में तीन  चौथाई बहुमत से उसका निर्णय किया जाये। 
  5.  किसान से ख़रीदे जाने का दाम साल में एक बार तय होता है तो फिर उसके खेत में लगने वाले सामानों जैसे खाद,डीजल इत्यादि के दामो में साल में कई बार वृद्धि करने से उसे निरंतर नुक्सान होगा और वह अपने काम को छोड़ने में ज्यादा रूचि रहेगी बजाय काम करने में।यह अच्छा चिन्ह नहीं है। भारत देश जिसकी अर्थव्यस्था कृषि आधारित है किसानो को लगातार अनादर देश की ऐसी क्षति करेगा की उसकी पूर्ति मुश्किल है।
  6. राष्ट्रीय महत्व के मुद्दों में निर्णय लेने में आम जनता की राय  इलेक्ट्रोनिक सुविधाओं  का इस्तेमाल कर संसदीय क्षेत्रानुसार करवा कर सांसदों का अपने क्षेत्र की राय के हिसाब से ही समर्थन देना अनिवार्य हो। उदहारण  के लिए ऍफ़ डी आइ के मामले में क्षेत्रियो पार्टियो ने जिस तरह का व्यहार किया वह वास्तव में जनतंत्र का अपमान है।ऐसे मुद्दों पर जनता की राय जानना आवाश्यक हो।और इसकी मोनीटरिंग चुनाव आयोग  स्वयं करे।और सांसदों के लिए उनके क्षेत्र की जनता का निर्णय मानने की बाध्यता होनी चाहिए।
  7.  सरकार जब भी किसी चीज पर दाम बढाती  है तो साथ ही बताना चाहिए की उसका बढ़ा हुआ पैसा कहा खर्च करंगे। और बढ़ी कमाई तथा खर्च दोनों में आपस में सम्बन्ध होना चाहिए।उदाहरण  के लिए यदि सड़क पर नियम तोड़ने के लिए जुर्माना बढ़ाते है तो उसका निवेश सड़क के गढ़ों को पाटने में ,सड़क बत्तियो को ठीक करने  में लगाया जाये।
  8.  जब भी सब्सिडी देने की घोषणा सरकार करती है तो उसे यह बताना चाहिए की इसकी भरपाई कहाँ से करने वाली है।किस तरह के अतरिक्त टैक्स इत्यादि लगाये जाने प्रस्तावित है।ताकि आम जनता को पता चले की किस कीमत पर किसको लाभ पहुँचाई जा रही है। यह उचित नहीं की एक बार सब्सिडी दी जाये और फिर थोड़े दिन बाद घाटे के नाम पर दाम बढ़ाये जाये ये टैक्स लगाये जाये।
  9.  जब कोई पार्टी अपने चुनाव घोषणा पत्र में  अर्थ सम्बन्धी घोषणाऐ करती है तो उसे भी यह बताना आवश्यक हो की खर्च का उपयोग कैसे होगा और धन कैसे आयेगा।जैसे किसान का कर्ज माफ़ किया जायेगा तो इस पैसे की व्यवस्था कैसे होगी।हम बैंक में घाटा करके इसी नीत कैसे बना सकते है। और फिर उसको पूरा करने लिए नए टैक्स लगाये ये दाम बढ़ाये यह उचित नहीं।
  10.  सभी उम्मीदवारों के लिए यह आवश्यक हो की वह जन प्रतिनधि  बने रहने के दौरान अपनी माली हैसियत के बारे में स्पष्ट घोषणा करे और बताये की उनकी कमाई में वृद्धि किस तरह अर्थात कितनी वृद्धि सम्पत्ति पुनर्मूल्यांकन  के कारण हुयी है और कितनी कमाई के कारण। 
  11.  यदि कोई उम्मीदवार अपनी सुरक्षा कारणों से एक से ज्यादा जगह से चुनाव लड़ता है तो उसे अतरिक्त
     सीटो पर उपचुनाव करवाने का खर्च चुनाव आयोग  के पास जमा करवाना चाहिए। यदि उम्मीदवार एक से अधिक स्थान से जीत  जाता है तो छोड़े जाने वाली सीट  पर उपचुनाव का खर्चा उस उम्मीदवार से लिया जाये न की सरकारी खजाने से। पिछले लोकसभा चुनाव में करीब 10000 करोड़ रुपये लोकसभा की 540-542 सीटो  पर खर्च हुए थे। जिसके अनुसार करीब 20 करोड़ रुपये  एक  सीट का खर्च होता है .यदि  यही चुनाव  एक साथ न होकर अलग अलग होता है तो खर्च लगभग दूना अर्थात उपचुनाव में 40-50 करोड़ होता है। इतना पैसा बैंक में जमा करवा कर ही एक से ज्यादा सीट   पर चुनाव लड़ने की अनुमति दी जाये। किसी उम्मीदवार को चुनाव में विजयी होने की सुरक्षा जनता के पैसे से नहीं दी जा सकती 
     
  12. चुनाव में आचार संघिता का तोडा जाना एक आम बात है।ज्यादातर मामलों में चुनाव आयोग चेतावनी दे कर उम्मीदवार को छोड़ देता है।इस सम्बन्ध में नियम स्पष्ट होना चाहिए।एक बार चेतावनी  देने के बाद दुबारा गलती होने पर उम्मीदवारी रद्द करने का अधिकार चुनाव आयोग  के पास होना चाहिए।और चुनाव आयोग  इस पर सख्ती से अमल करे इसके लिए सभी पार्टियों के एक-एक प्रतिनिधियों का अधिकरण बने जो इस विषय पर बहुमत से अपनी राय निर्धारित दो-तीन दिन में  दे और चुनावआयोग उसे सख्ती से लागू  करे।
  13. यदि कोई नेता किसी दूसरी पार्टी के बारे में आपत्तिजनक अथवा भद्दा टीका -टिप्पणी करता है तो उसे इस के लिए पर्याप्त सबूत  देने चाहिये।इसके बिना यह कहना की मैंने तो आरोप  लगा दिया है अब आरोपी इस को गलत सिद्ध करे अथवा अदालत में जाये उचित नहीं है। क्योंकि ज्यादातर मामलो में यह केवल बदनाम करने की साजिश  होती है जो आम आदमी को गुमराह करने के लिए की जाती है।
  14. सभी राजनैतिक पार्टियों द्वारा लिए जाने वाला पैसा व खर्च का ब्यौरा  इनकी बैलेंस शीट में हो और वह  वेब साईट पर आम आदमी के लिए उपलब्ध हो ताकि।पच्चीस हजार से ज्यादा दान देने वाले का नाम और पता उसी तरह जांचा जा सके जैसे समाज सेवी संस्थाओ को दिया जाने वाला धन जांचा जाता है। दिए जाने वाले धन पर 20-25% टैक्स वसूलना भी ठीक रहेगा।ताकि काले धन को  चुनाव के माध्यम से सफ़ेद करने के काम पर रोक लग सके।
  15. जो  पब्लिक लिमिटेड कंपनिया दान देती है यह केवल उन्ही को इजाजत होनी चाहिए जिन्होंने अपनी सालाना बैठक में ऐसा  प्रस्ताव पास किया हो।यह केवल 2%शेयर रखने वाले और मालिको की तरह कम्पनी चलाने की मन मर्जी से नहीं होना चाहिए।
  16. जिन कंपनियो पर सरकारी देनदारी बाकी है उन्हें दान देने की इजाजत तब तक न दी जाये जब तक वह देनदारी  दे न दे अथवा उतना पैसा सरकारी खजाने में जमा न कर दे।ताकि सरकारी पैसा देने के बजाय दान देकर जीतने वाली पार्टी की सरकार बनने के बाद दान की दुहाई दे कर सरकारी खजाने को चूना   न लगा  सके।
 अजय सिंह "एकल"

Wednesday, January 16, 2013

करे कोई भरे कोई

 दोस्तों ,
क्या अपने कभी ऐसा  देखा है की किसी के द्वारा की गयी गलतियों का खामियाजा कोई दूसरा आदमी या व्यवस्था भरे। शायद नहीं। आपने तो शायद यह भी नहीं देखा होगा की यदि आप किसी योजना के बनाने और उसे लागू  करने के लिए जिम्मेदार हो तो उस योजना के बुरी तरह फेल  हो जाने पर आपको किसी  भी प्रकार न तो दण्डित किया जा सकता है  न ही  और किसी प्रकार की जवाबदेही आपकी बनती है। और आप मजे से अपनी सेवा पूरी करते हुए यानि सेवा में तरक्की का लाभ उठाते हुए सभी प्रकार के सेवा लाभ लेते हुए शान से सेवानिवृत्ति के लाभ उठा सकते है।

लेकिन  ऐसा हो रहा है और आप की नाक के नीचे हो रहा है और आप खूटें में बंधी बकरी की तरह कसाई को देख कर में-में तो कर रहे है लेकिन इससे ज्यादा कुछ नही कर सकते। हालाकिं इसमें दोष उन लोगो का नहीं है जो ऐसा कर रहे है ।बल्कि दोष उन लोगो का है जो ऐसा होते हुए देख रहे है, और कभी -कभी चर्चा भी करते है लेकिन उससे बाहर आने के लिए कोई प्रयत्न इसलिए नहीं करते की उन्होंने मान लिया  है की यही भाग्य है , यही विधि का विधान है अत: प्रयास करने से भी कुछ सार्थक होने वाला नहीं है।

आईये,हम अब आते है असली मुद्दे पर। हमारी संसदीय व्यव्य्स्थाओ के अनुसार साल में एक बार संसद में बजट पेश करने का प्रावधान है। यह बजट सरकार में तरह तरह के विशेषज्ञ और अनुभवी लोगो की मदद से बनाया जाता है और जनता के करोडो रुपये बजट बनाने में सरकार  खर्च करती है। यह बजट साल भर में तमाम मदों पर खर्च का आय और व्यय का अनुमान होता है। इसी अनुमान के हिसाब से  माननीय वित् मंत्री जी जनता पर टैक्स लगाते है अपने  राजनीतक हितो को ध्यान रखते हुए अनुदान और अन्य रियायतों की घोषणा करते है। इस बजट के बनने और फिर संसद में रखे जाने के बाद बजट सत्र में माननीय सांसदों द्वारा इस पर बहस कर इसे पारित किया जाता है। एक मोटे अनुमान के अनुसार लगभग सौं करोड़ रुपये तो केवल बजट सत्र में संसद पर भत्ते तथा अन्य व्यय  किये जाते है। एक बार संसद से पास हो जाने के बाद इसे जनता पर लाद दिया जाता है। जिसे जनता ढोने के अलावा कुछ नहीं कर सकती।

बजट पास होने के बाद अभी आप नए टैक्स इत्यादी के हिसाब से अपने अपने परिवार के बजट को नए खर्चो के हिसाब से  समायोजित ही कर पाए थे की तीसरे महीने ही नए अनुमान मंत्री जी और उनकी मंडली ने लगा दिए और  जीवन उपयोगी तमाम चीजो के दाम बढ़ा दिये, अब  आप एक बार फिर से उन अनुमानों के हिसाब से अपनी जिन्दगी को व्यवस्थित करने लग जाते है और यह कभी न रुकने वाला क्रम जैसे इस देश की जनता की नियति बन गया  है। और आम आदमी जिसकी कमाई (तन्खा )साल में एक बार बढती है साल में कई बार छोटे -बड़े झटके खाते हुए फिर अगले बजट में लगने वाले नए करो के बारे में अनुमान लगाता रहता है। और इस बीच सरकार और उनके लिए काम करने वाली फ़ौज के लिए तरह -तरह से दिए जाने वाले भत्ते और सुविधाए बढती जाती है। तभी तो प्लानिंग कमीसन के उपप्रधान दिल्ली में 30 रूपये रोज में जीवन यापन करने की वकालत करते है और अपने बाथरूम में 35 लाख लगाकर नवीकरण करते है।

पिछले एक साल में अनेक बार पेट्रोल डीजल और एल पी   जी इत्यादी के रेट बढ़ाये गए। मंत्री जी ने घोषणा कर दी की अब सिलंडर पर अनुदान नहीं मिलेगा और साल में छे आपको सस्ते दाम पर पर और उसके बाद लगभग दूने  दाम पर मिलेंगे।  पेट्रोल के दाम बजट के बाद बढ़ाये गये क्योकि कहते है की अब हमें डालर मूल्य बढ़ने के कारण कंपनी को घाटा हो रहा है। लेकिन जिन कम्पनियो के घाटे की बात मंत्री जी कर रहे है वह कम्पनिया सरकार को डिविडेंड यानि मुनाफे का हिस्सा दे रही है।और कंपनियो के शेयर मूल्य भी बढ़ रहे है।
उदाहरन के लिए इंडियन आयल कारपोरेशन का पिछले 10 सालो का नियमित डिविडेंड देने का रिकार्ड है। कम से कम 4 बार इस कम्पनी ने बोनस शेयर भी एलाट किये है।

जिन कंपनियो की स्तिथी सुधरने के लिए मूल्य बढ़ा कर ज्यादा दाम देंने को जनता मजबूर है उन कंपनियो को अपने खर्चो पर कटोती करने के कोई संकेत नहीं और न ही उन्नत तकनीक से प्रक्रमण करने के कोई उपाए अपनाये जा रहे है। यानि जब भी आपकी योजना फेल  हो दाम बढ़ा दो। क्या सरकार बता सकती है अन्य व्यापारी जो आयातित मॉल से बना उत्पाद बनाते है उनके दाम ऐसे क्यों नहीं बढ़ते।

इस तरह देश की जनता सरकार के रहमो करम पर निर्भर हो गयी है।और सारे निर्णय राजनैतिक नफा नुकसान देख कर किये जा रहे है। क्या यही सोच कर हमारे संविधान निर्माताओ ने इसके नियम बनाये थे।क्या ऐसे ही देश की कल्पना की गयी थी। यह एक बड़ा प्रश्न है और गणतंत्र की 63वी जयंती मनाते समय इस स्थिति पर विचार करना उपयुक्त रहेगा।

अजय सिंह "एकल"


Saturday, January 5, 2013

क्या हम अगले 65 वर्ष भी वैसे ही गुजारना चाहते है जैसे पिछले 65 वर्ष


दोस्तों,
सवाल यह नहीं है की हमने पिछले पैसठ साल कैसे गुजारे  है सवाल यह है की हम आगे कैसे जीना चाहते है और उसको प्राप्त करने के लिए हम क्या कीमत देने को तैयार है?हम गणतंत्र का 63वां वर्ष मनाने की तैयारियो में लगे है फिर एक दिन की छुट्टी मिलेगी, राष्ट्र के नाम संबोधन होगा, कुछ झाँकिया राजपथ पर निकलेंगी और स्कूलों में लड्डू बांटे जायँगे।कभी न पूरी होने वाली कुछ घोषणlये  राजनैतिक हितो को साधने के लिए की जाएँगी  लेकिन क्या इस सबके लिए ही गणतंत्र दिवस देश में  मनाया जाता है? या हम इस दिन बैठ कर आत्मविश्लेषण कर सकते है की देश के सामने क्या लक्ष्य है,हमारे नैतिक मूल्य में क्या बदलाव लाने की जरुरत है हम आखिर जाना कहाँ चाहते  और हम ऐसा क्या करे की हमें वह मिले जिसकी कल्पना हमारे संविधान निर्माताओ ने की थी।


राष्ट्रीय शर्म के काम तो हम लोग, हमारे राजनीतिज्ञ और पत्रकार बन्धू जाने अनजाने करते ही रहते है।सरकारी अधिकारियो खास कर पुलिस और अन्य सबसे ऊँचे तबके के अधिकारियो को तो बाकायदा सरकार ने ऐसा करने का लाइसेंस भी दिया है और तन्खवा  भी देती है।और अब यह सब धीरे धीरे आम जनता के सामने आ भी रहा है। लेकिन इस सबका दोषी केवल उन्ही लोगो को नहीं ठहराया जा सकता है जिनके ऊपर गलत करने का आरोप है दोषी तो हम लोग भी है जिन्होंने परिवर्तन के लिए आवाज नहीं उठाई और यथा स्थिति को स्वीकार किया या जो थोड़ी बहुत परिवर्तन की कोशिश समय समय पर हुई उसको ऊपर -ऊपर से परवर्तित होते देख संतोष कर लिया। जैसा 1974 में  जय प्रकाश जी के आन्दोलन के बाद हुआ था और  आपात काल के बाद जनता पार्टी का राज्य आया था और कई नए राजनीतिज्ञों के उदय होने पर नयी आशा की जो किरण दिखी थी मुश्किल से 3-4 साल में ही लुप्त हो गयी और फिर वही लोग सत्ता पर काबिज हो गए जिन्हें जनता ने थोडा पहले ही हटाया था।

अब हम फिर अपने मूल प्रश्न पर लौटते है,की हम क्या परिवर्तन चाहते है और उसके लिए क्या मूल्य दे सकते है?क्योंकि चाहने और प्राप्त करने के बीच मूल्य देने के प्रश्न पर हम आमतौर पर  बगले झाकते नजर आते है और उम्मीद करते है की यह काम कोई और ही करदे तो अच्छा है लेकिन ऐसा होता नहीं है। नयी पीढ़ी को कोसना भी हमारी आदतों में शुमार है।मगर दिल्ली रैप कांड की  एक घटना ने दिखा दिया की देश के नवजवानों में आज भी भगत सिंह की तरह आत्म बलिदान करने का जज्बा है,पिछले साल अन्ना आन्दोलन के समय नौजवानों के उत्साह को देख कर लोगो ने इसे क्षणिक उत्साह की संज्ञा देकर अपने कर्तव्य की इतिश्री कर ली थी।लेकिन इसबार नौजवानों ने जिस तरह का उत्साह दिखाया है और व्यवस्था को नंगा किया है उससे
यह तय है की  देश के नौजवान ऊर्जा से भरपूर है।

आश्चर्य है की इस देश की व्यस्था ऐसी है की फेस बुक पर कमेन्ट लिखने के लिए जेल दी जाती है,पीड़ित का इंटरव्यू दिखाने के लिये चैनल पर मुकदमा किया जाता है पीड़ित को मरना निश्चित हो जाने के बाद ड़ेमेज कंट्रोल के लिए सिंगापुर भेज देते है लेकिन उसी के साथ घायल हुए लड़के का इलाज हिन्दुस्तान में भी सरकार नहीं करवा रही है और उसे इसके लिए संघर्ष करना पड़ रहा है। दूसरी ओर आंध्र प्रदेश के एक एम् एल ये द्वारा दिए गए हिंसक और भड़काऊ बयांन  के बाद प्रदेश या केन्द्र  सरकार की और से कोई कार्यवाही नहीं  हो रही है। देश के गृह मंत्री जो अतंकवादियो  को भी  जी लगा कर बुलाते है वही मंत्री यह पूछे जाने पर की  नवजवान प्रदर्शनकारियो से मिल कर बात क्यों नहीं करते कहते है की यदि नक्सली राजपथ पर आ आजाएं तो क्या मंत्री उनसे मिलने जायेगा।राहुल गाँधी जिन युवाओं का प्रतिनिधित्व करने का दावा करते है वोह भी कहीं नजर नहीं आये।  क्या हमारी सोंच की दिशा केवल जनता के वोट लेकर उसको ही जलील करने का प्रयास करती है। समस्याए बहुत है समाधान भी हमें सोचना है। आगे की कुछ कड़ियो पर हम इसकी चर्चा करेंगे।


और अंत में 
आदमी को पैर का जूता मत समझ 
वक्त का जूता पड़ेगा आदमी बन जायेगा।


अजय सिंह "एकल"