Sunday, September 25, 2016

क्या हम सब चोर है ?


दोस्तों ,

क्षमा कीजिये में आप की शान में गुस्ताखी नहीं कर रहा हूँ बल्कि १९९५ में आयी एक फिल्म का जिक्र कर रहा हूँ। और जिक्र कर रहा हूँ मानव स्वभाव का।  असल में होता  क्या है की चोर या चोरी की बात सुनते है हमारे मन में रुपये -पैसे की चोरी का ख्याल आता है। जीवन के अनुभव से यह बात समझ में आयी की रुपए- पैसे  की चोरी  सबसे निकृष्ट श्रेणी की चोरी है और साधारणतया यह अनपढ़ और अथवा गरीबो के द्वारा की जीवन की आवश्यकता पूर्ति के लिए की जाती है अथवा पढ़े लिखें और अपनी रोजी रोटी कमा सकने में समर्थ लोगो के द्वारा जीवन स्तर को बेहतर और बेहतर बनाने के लिए लालच के वशी भूत होने के कारण की जाती है। जैसे जैसे जीवन का अनुभव बढ़ता गया तो यह पता चला की यह चोरी तो बहुत छोटी है और पकडे जाने पर जेल ,मुकदमा इत्यदि तो होगा ही साथ ही समाज में स्वाभिमान के साथ जीने की संभावनाएं भी कम हो जाती है।

लेकिन यदि चोरी ऐसी हो जिसको करने  सम्मान भी मिले और पैसे भी तो कैसा रहेगा? हमारे देश में नकली डिग्री लेकर काम करने वाले इंजीनयर ,डाक्टर, वकील ,प्रोफेसर यहाँ तक की ऐसे  सरकारी कर्मचारियों की भी कमी नहीं जिन्होंने अपनी जाति का गलत सर्टिफिकेट लगा कर नौकरी प्राप्त की और प्रमोशन भी। कंसल्टेंट , साइन्टिस्ट,रिसर्चर्स के बीच तो यह बड़ी साधारण और रोजमर्रा का काम है। जो लोग आईडिया लाते और उस पर काम करते है उनके साथ ऐसा बरताव अक्सर हो जाता है। क्योंकि जब भी आप किसी आईडिया पर काम करते है तो वह आपको अपने दोस्तों अथवा टीम से शेयर करना होता है और शेयर करने के बाद आपका आईडिया केवल आपका  नहीं रह जाता है। अब इसमें कोई ज्यादा सयाना हुआ तो आईडिया को लेकर आपसे पहले ही उसको अपने फेवर में उपयोग कर लेगा। पीएचडी  के लिए रिसर्च कर रहे लोगो के साथ उनके गाइड ने अपने विद्यार्थी का लेख अपने नाम से छाप दिया ऐसा तो बहुत बार होता रहता है और इसको एक स्वाभाविक स्थित मान कर समझौता करने वाले विद्यार्थी भी आपको  मिलेंगे और फिर अधिकांश लोग यही प्रैक्टिस भी करेंगे।

अभी हाल में ही ऐसा एक समाचार डॉ राधा कृष्णन सर्वपल्ली जो की देश के दूसरे राष्ट्रपति बने तथा भारत रत्न का अवार्ड भी उन्हें मिला।  डॉ राधा कृष्णनन के जन्म दिन पर पुरे देश में टीचर्स डे मनाया जाता है और योग्य अध्यापको को पुरष्कृत भी किया जाता है।  इनकी पीएचडी और लिखी हुई पुस्तक के बारे में  महेंद्र यादव जी (वरिष्ठ पत्रकार, लेखक एवं संपादक )  ने आरोप लगाया है। प्रथम दृष्टया आरोप ठीक नहीं लगते है किन्तु अब बात उठी है तो उसपर चर्चा और सत्यता जानने की चाहत में यह लेख लिखने की हिम्मत जुटा  पाया हूँ
नई दस्तक ब्लॉग पर प्रकाशित आलेख का लिंक यहाँ क्लिक करे .


लेकिन बात यहाँ तक ही सीमित नहीं पिछले सप्ताह टाइम्स ऑफ़ इंडिया में प्रकाशित ऐसा ही एक समाचार जिसमे दुनियां के प्रतिष्ठित लेखक शेक्सपियर के बारे में ऐसी ही टिपण्णी की गयी है ध्यान देने योग्य है। और इससे मानव स्वभाव के सार्वभोमिकता और पुरातन समय से हो रहे चलन का पता चलना दिलचस्प है।









अंत में 

 
हम सब चोर हैं
लेखक: यशपाल जैन


पुराने जमाने की बात है। एक आदमी को अपराध में पकड़ा गया। उसे राजा के सामने पेश किया गया। उन दिनों चोरो को फाँसी की सजा दी जाती थी। अपराध सिद्ध हो जाने पर इस आदमी को भी फाँसी की सजा मिली। राजा ने कहा, 'फाँसी पर चढ़ने से पहले तुम्हारी कोई इच्छा हो तो बताओ।'
आदमी ने कहा, 'राजन! मैं मोती तैयार करना जानता हूँ। मेरी इच्छा है कि मरने से पहले कुछ मोती तैयार कर जाऊँ।'
राजा ने उसकी बात मान ली और उसे कुछ दिन के लिए छोड़ दिया।
आदमी ने महल के पास एक खेत की जमीन को अच्छी तरह खोदा और समतल किया। राजा और उसके अधिकारी वहाँ मौजूद थे।
खेत ठीक होने पर उसने राजा से कहा, 'महाराज, मोती बोने के लिए जमीन तैयार है, लेकिन इसमें बीज वही डाल सकेगा, जिसने तन से या मन से कभी चोरी न की हो। मैं तो चोर हूँ, इसलिए बीज नहीं डाल सकता।'
राजा ने अपने अधिकारियों की ओर देखा। कोई भी उठकर नहीं आया।
तब राजा ने कहा, 'मैं तुम्हारी सजा माफ करता हूँ। हम सब चोर हैं। चोर चोर को क्या दंड देगा!'


अजय सिंह "जे एस के " 









जाने पहचाने अजनबी

दोस्तों ,

आपको पढ़  कर  आश्चर्य हो रहा होगा की अजनबी जाना पहचाना कैसे हो सकता है, मुझे भी हो रहा है। लॉजिकल माइन्ड कहता है की अगर पहचान है तो अजनबी न होगा और अजनबी है तो पहचाना हुआ नहीं हो सकता। लेकिन कुछ बाते लॉजिक के बाहर होती है और वैसी ही बात है यह।

कल गाड़ी चलाते हुए रेडियो पर एक बड़ी दिलचस्प बात पता चली। लन्दन में कुछ लोगो ने "आई  टाक तो स्ट्रेन्जर्स" के नाम से एक अभियान शुरू किया है।  इस अभियान के भागीदार घर से बाहर निकलते हुए अपने कपड़ो पर एक बैज लगते है जिस पर लिखा होता होता है "आई  टाक तो स्ट्रेन्जर्स" और इसे देख कर सामने वाला समझ जाता है की यह स्त्री  या पुरुष भी अकेला है और बात करने के लिए दोस्तों को तलाश कर रहा है। फिर वह दोनों आपस में पहचान करते है और एक दूसरे के दोस्त बन जाते है।

रेडियो सुनकर मेरे मन में एक प्रश्न उठा, की इंग्लैंड में रहने वाला यह समाज आखिर इस स्थिति में पहुँचा कैसे ? जिस देश ने आधी दुनिया में राज्य किया हो ,जिस देश का सूरज कभी न डूबता हो वहाँ ऐसी परिस्थितियाँ  कैसे उत्पन्न हुईं  और इसके लिए जिम्मेदार कौन है ? इन सबसे ज्यादा महत्वपूर्ण प्रश्न यह की कहीं हम भी तो उसी रास्ते पर नहीं चल रहे है। इसकी सम्भावना इसलिए भी दिखती है की हमारा देश अमरीका और इंगलैंड में जो कुछ भी होता है उसे दस -पंद्रह साल बाद बड़ी आसानी और स्वाभाविक तरीके से अपना लेता है।

इस सन्दर्भ में एक बात और याद आ रही है।  मैं जब भी रेलवेस्टेशन पर घोषणा सुनता हूँ किसी अजनबी से दोस्ती न करे ,अजनबी का दिया हुआ  खाना न खाएं इत्यादि।तो  यह सुनकर मन में स्वाभाविक प्रश्न यह उठता है की जब  भी आप किसी नए व्यक्ति से दोस्ती करते है तो वह पहले अजनबी ही होता है।  और यदि रेलवे की सलाह मान ली तो कभी नया दोस्त तो बनेगा ही नहीं केवल एक स्थित को को छोड़ कर। जब किसी अजनबी से आपकी मुलाकात किसी दूसरे दोस्त या पहचान वाले के माध्यम से हो रही हो। अब खतरा तो इसमें भी है, कम हो सकता है, क्योंकि आप जिसको पहले से जानते हो उसके द्वारा आपसे नए व्यक्ति का परिचय हुआ है लेकिन खतरा जीरो नहीं हो सकता। इसके कई कारण हो सकते है।

मानव स्वभाव बदलता रहता है।  जो आपका आज मित्र है सम्भव की परिस्थितयों वस  कुछ वर्षो के बाद वह आपका मित्र न रहे। इसका उल्टा यानि कोई ऐसा भी आपका मित्र बन सकता है जो पहले आपको अच्छा नहीं लगता था । जिंदगी में कई बार गलतिया और गलतफहमिया भी बरसो की दोस्ती यहाँ तक की रिश्तेदारियां ख़तम करवाने के लिए जिम्मेदार होती है। और फिर बदसलूकी और ठगने की  जितनी भी घटनायें टीवी और न्यूज़ पेपर में पढ़ने को मिलती है उसमे काफी पड़ोसियों और रिश्तेदारों के द्वारा की जाती है। अजनबीओ के द्वारा ठगे जाने या बदसलूकी किये जाने की संभावनाओ को देखते हुए सावधानी हमेशा ही अपेक्षित है, अतः सिद्धान्त रूप में इसे स्वीकार करना की सभी अजनबी खतरनाक हो सकते है ठीक नहीं है। वैसे भी ऐसे लोग समाज में १-२ प्रतिशत ही होते है तो सम्भावना के गणतीय सिद्धान्त द्वारा भी इतनी सावधानी रखना की ऐसी संभावनों से  बचना  ठीक व्यहार हो सकता है। अन्यथा भविष्य में भारत में भी इंग्लैंड  जैसे  अभियान की जरुरत पड़  सकती है।  कहते है की बुद्धिमान व्यक्ति और समाज वही है जो दूसरों के साथ हुई घटनाओ से सीख  लेले नहीं तो तैयार हो जाइए आप भी बैज लगाने के लिए।

और अंत में 
जिंदगी समझ नहीं आयी तो मेले में अकेला 
और समझ आ गयी तो अकेले में मेला 

अजय सिंह "जे ऐस के"