Tuesday, November 6, 2018

हर कोई माँगे आजादी

दोस्तों ,



देश में जब से मोदी राज आया है तब से हर कोई आजादी माँग  रहा है। कभी कभी तो ऐसा लगता  है की मानों देश में किसी विदेशी का शासन गया है।  अख़बार, टीवी  और पत्रिकाओं को पढ़ने से तो ऐसा ही लगता है। मई २०१४ में मोदी जी के प्रधान मंत्री बनने के तुरंत बाद ही बहुत से लोगो को घुटन महसूस होनी शुरू हो गयी थी। इसके खिलाफ अपनी भावनाओं  को व्यक्त करने सबसे पहला बड़ा हमला बोला देश के उन लेखक और बुध्जीविओ ने जिनकी रोजी रोटी और दुकानदारी   सरकार के पैसो पर चल रही थी जब इन लोगो पर अंकुश लगा तो इन का दम  घुटने लगा और करीब ३२-३३ लोगों ने अपने पुरुष्कार वापसी का अभियान चला कर आजादी मांगने का स्वांग रचा।

- महीने में जैसे ही इन महान लेखकों को लगा की इनका  अभियान बिहार चुनाव में  अपेक्षित परिणामों को  लाने में सफल  हो गया तो इस अभियान का पार्ट दो शुरू हुआ देश के उत्तर में देश- विदेश में विख्यात जवाहर लाल नेहरू विश्वविद्यालय में।  जहाँ कन्हैया कुमार जिनका पढ़ने लिखने से कोई वास्ता होकर   केवल नेतागिरी  करने के लिए पढाई कर रहे थे कुछ कश्मीरी छात्रों के साथ आजादी माँगने का आन्दोलन चलाया और इसे राहुल गाँधी के नेतृत्व में खूब हवा मिली। और साथ ही दक्षिण के राज्य आंध्र प्रदेश में कमान संभाली  रोहित वेमुला ने जिन्होंने याकूब मेमन की फांसी की खिलाफत का आंदोलन शुरू कर दिया। और गुण्डा गर्दी में सफल हो पाने के कारण आंदोलन चलाने वालों ने रोहित की बली चढ़ा कर मामले को गरमाना शुरू किया। मुश्किल से -  महीने ही निकले थे की   जे एन यू में ही पढ़ने वाले एक और छात्र  नजीब अहमद गायब हो गए   जिनके  तार कश्मीर से जुड़े थे और आजादी की बेसब्री से माँग कर रहे थे। 


देश में यह सबकुछ चल ही रहा था मोदी जी  ने  छोटे -छोटे दर्दो के इलाज में देश में नोट बंदी लागू  कर दी यह एक ऐसी चाल  थी जिसका  पूर्वानुमान ही नहीं था। नतीजतन लोग आजादी मांगने के बजाय अपनी सम्पत्ति बचाने में लग गए और मोदी जी ने उत्तर प्रदेश और उत्तराखण्ड में अप्रत्याशित विजय हासिल करके यह दिखा दिया की भले ही उन्हें राष्ट्रीय राजनीत का अनुभव दूसरे बड़े नेताओं खास कर के कांग्रेसी और समाजवादी नेताओं से कम  हो    लेकिन उन्हें रावण की नाभि के अमृत का पता है और उन्होंने एक वार  से सारा मामला ठंडे बस्ते में डालने में सफलता प्राप्त कर ली । 
देश में एक बार फिर चुनाव का माहौल बना है पहले पांच राज्यों के चुनाव फिर केंद्र के शासन के लिए चुनाव। एक बार फिर माहौल गर्माने की पुरजोर कोशिश शुरू हो गई है। सीबीआई हो या रिज़र्व बैंक  यहाँ तक की फिल्म और टेलेविज़न इंस्टिट्यूट के निदेशक अनुपम खेर समेत देश के अनेक संस्थानों में लोगो ने अपने अपने स्थान पर शोर मचाना शुरू कर दिया है। राफेल की खरीद में कल्पित घोटाले का शोर बिना किसी सबूत  के कांग्रेस अध्यक्ष  राहुल ने उठा रखा है। और यह सबकुछ चुनाव तक तो चलने वाला है ही। क्योकि इस बार के चुनाव कांग्रेस के लिए अस्तित्व का प्रश्न है तो भाजपा के लिये  प्रतिष्ठा का। 

मोदी अमित शाह की जोड़ी ने जिस तरह से पिछले साढ़े चार साल  शासन देश में किया है उससे पुराने भाजपाई भी नाराज है। यशवंत सिन्हा,शत्रुघन सिन्हा अरुण शौरी तो खुलेआम अपनी नाराजगी व्यक्त कर रहे है। गुपचुप नाराजगी वालो की लिस्ट तो और भी लम्बी है। इसका एक बड़ा कारण बना है देश के अंदर का माहौल।कुछ लोगो ने कुछ इस तरह का माहौल बना दिया है की यदि आप मोदी भक्त नहीं है तो फिर आप देश द्रोही की श्रेणी में आते है।  देश भक्त होना और मोदी भक्त होना पर्यायवाची हो गए है। ये स्थिति ठीक नहीं है। अतिउत्साह में यही काम डी के बरुआ इन्द्रा गाँधी के लिए भी करचुके है। असल में इस तरह का वातावरण बना कर कुछ लोग अपनी स्वार्थसिद्धि तो कर सकते है पर ये न तो देश का भला करता है न उस व्यक्ति का जिस के लिए यह सबकुछ किया जा रहा है। बल्कि यह वस्तुस्थित से दूर कर देता है जो चुनाव में परिणामो की पूर्व कल्पना भी करने के लिए केवल जीत का विकल्प  ही दिखाता है नतीजा परिणाम उलटे आते है। इसलिए जो कोई भी मोदी नीतियों से असहमत है उसके लिए घुटन का माहौल बन गया है। हालांकि मोदी नीतियों से असहमत व्यक्ति भी देश के बारे में ठीक सोच रखने वाला हो सकता है इस बात को अगर ध्यान नहीं रखा गया तो भविष्य में कुछ और लोग भी आजादी की मांग उठाते हुए दिखे तो कोई आश्चर्य नहीं। 
अजय सिंह "एकल"

और अन्त  में 


प्रश्नपत्र है जिंदगी

जस की तस स्वीकार्य

कुछ भी वैकल्पिक नहीं,

सभी प्रश्न अनिवार्य....   







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